Supreme Court Vs Government Row- सुप्रीम कोर्ट Vs सरकार: जजों की नियुक्ति से रिटायरमेंट तक क्या चाहते थे संविधान निर्माता? अब क्यों बढ़ रही है टकराव की लकीर?

Supreme Court Vs Government Row- 🧨
🏛️ सुप्रीम कोर्ट पर सियासत गरम, संविधान सभा की सोच फिर चर्चा में!
Supreme Court Vs Government Row- 🧨 हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और बीजेपी सांसदों के बयानों ने सुप्रीम कोर्ट बनाम सरकार विवाद को नई हवा दे दी है। निशिकांत दुबे और डॉ. दिनेश शर्मा के बयानों से पैदा हुआ बवाल भले ही पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने “व्यक्तिगत राय” कहकर शांत करने की कोशिश की हो, लेकिन न्यायपालिका और कार्यपालिका की टकराहट अब सुर्खियों में है।
Supreme Court Vs Government Row- 🧨 लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये बहस कोई नई नहीं है? संविधान सभा में जब देश का संविधान लिखा जा रहा था, तब भी जजों की नियुक्ति से लेकर रिटायरमेंट तक कई ज़रूरी मुद्दों पर तीखी बहसें हुई थीं।
⚖️ संविधान सभा की सोच: न्यायपालिका बनी रहे स्वतंत्र और निष्पक्ष
23 मई 1949, संविधान सभा में नजीरुद्दीन अहमद ने कहा था कि लोकतंत्र को मजबूत रखने के लिए जनता का न्यायपालिका पर भरोसा बेहद ज़रूरी है। अगर ये भरोसा टूटता है, तो सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ जाती है। वहीं अनंतशयनम आयंगर ने कहा था कि उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) को किसी भी कीमत पर कार्यपालिका से स्वतंत्र रहना चाहिए।
👨⚖️ जजों की नियुक्ति पर टकराव तब भी था!
आज हम कॉलेजियम सिस्टम पर बहस करते हैं, लेकिन तब भी जजों की नियुक्ति को लेकर कई प्रस्ताव आए थे:
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शिब्बन लाल सक्सेना ने सुझाव दिया था कि राष्ट्रपति की नियुक्ति को दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत से पुष्टि की जाए।
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के.टी. शाह चाहते थे कि राष्ट्रपति नियुक्ति से पहले राज्य परिषद और न्यायपालिका दोनों से परामर्श ले।
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लेकिन रोहिणी कुमार चौधरी ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि इससे बहुसंख्यक दल मनमानी नियुक्तियां कर सकेगा।
📜 डॉ. आंबेडकर ने अपनाया था ‘मध्यम मार्ग’
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने तीन प्रमुख विचारों को खारिज करते हुए कहा था:
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जजों की नियुक्ति केवल मुख्य न्यायाधीश की सहमति से न हो।
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दोनों सदनों की स्वीकृति लेना भारत जैसे देश में व्यावहारिक नहीं।
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राष्ट्रपति को परामर्श देने के लिए उपयुक्त व्यक्तियों की व्यवस्था हो।
उन्होंने कहा, “मुख्य न्यायाधीश के परामर्श को बाध्यकारी बनाना भी एक तरह की तानाशाही होगी।”
🧓 रिटायरमेंट के बाद की नियुक्तियों पर भी बहस!
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के.टी. शाह चाहते थे कि सेवा निवृत्त न्यायाधीशों को सरकारी पद न दिए जाएं ताकि कोई प्रलोभन न रहे।
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मोहम्मद ताहिर ने कहा कि अगर कोई पद देना है तो वह भी राष्ट्रपति की अनुमति से हो।
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वहीं दूसरी ओर, डॉ. आंबेडकर ने इस पाबंदी का विरोध किया। उन्होंने कहा कि रिटायरमेंट के बाद न्यायिक ज्ञान का उपयोग जरूरी है, लेकिन वकालत को छोड़कर अन्य पदों की इजाजत दी जा सकती है।

📆 रिटायरमेंट की उम्र पर भी थी बहस!
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विश्वनाथ दास: उम्र घटाकर 60 साल करने की मांग।
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आयंगर: इंग्लैंड (70 साल) और कनाडा (75 साल) का उदाहरण देते हुए भारत में उम्र बढ़ाकर 70 साल करने की वकालत।
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पंडित नेहरू: उम्र सीमा पर विचार करते समय युवाओं को नौकरी देने की सोच को अप्रासंगिक बताया।
🧠 क्या आज की टकराहट को सुलझा पाएगी संविधान सभा की सोच?
आज जिस मुद्दे पर देश में बहस हो रही है, उसकी जड़ें संविधान सभा की बहसों में छुपी हैं। आज की कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सीमा रेखा खींचने की जो जरूरत महसूस की जा रही है, उसे 75 साल पहले ही हमारे संविधान निर्माताओं ने देखा था।
विवाद चाहे तमिलनाडु के गवर्नर से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हो या फिर लंबित विधेयकों पर समयसीमा तय करने की बात हो—सभी मुद्दे इस बात की याद दिलाते हैं कि देश का लोकतंत्र संविधान की भावना और संस्थाओं की गरिमा पर टिका है।
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📢 निष्कर्ष: क्या संविधान की आत्मा से भटक रही है सरकार?
संविधान सभा की बहसों को पढ़ते हुए साफ होता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारत की लोकतांत्रिक आत्मा है। लेकिन जब कार्यपालिका खुद को सर्वोच्च समझने लगे, या न्यायपालिका को “रुकावट” मानने लगे—तो ये संविधान के मूल विचारों से भटकाव है।
अब जरूरत है कि संविधान की आत्मा को फिर से समझा जाए, और न्यायपालिका को स्वतंत्र, निष्पक्ष और मजबूत बनाए रखा जाए।
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