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बाबा साहब, भारतीय संविधान और मौजूदा खतरे | newsforum

डॉ. म्बेडकर की 130 वीं सालगिरह पर विशेष आलेख

 

संविधान सभा के लिए दो बार चुने गए थे बाबा साहब

 

आजादी के लिए हुए समझौते और तिथि तय हो जाने के बीच ही संविधान सभा के लिए चुनाव हुए थे। जुलाई 1946 में करीब 10 लाख पर एक के हिसाब से एक सदस्य के साथ 292 सदस्य चुने गए। इनके अलावा 93 प्रतिनिधि रियासतों के थे और 4 प्रतिनिधि दिल्ली, अजमेर-मेवाड़. कूर्ग और ब्रिटिश बलोचिस्तान से थे। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर संविधान सभा के लिए बंगाल की जैसोर खुलना सीट से जीते। इस सीट से लड़ने के लिए उन्हें मुस्लिम लीग के बड़े नेता और नमोशूद्र आंदोलन से जुड़े समाज सुधारक जोगेंद्र नाथ मंडल ने न्यौता देकर बुलाया था। मगर विभाजन में जैसोर और खुलना पाकिस्तान (अब के बांग्लादेश) में चला गया। ऐसी स्थिति में नेहरू की पहल पर उन्हें कांग्रेस और कम्युनिस्टों के समर्थन से बॉम्बे प्रेसीडेंसी के एक कांग्रेसी सदस्य की सीट खाली करवा कर वहां से चुनवाकर लाया गया। इस तरह डॉ. अम्बेडकर, संभवतः, अकेले व्यक्ति थे जो भारत की संविधान सभा के लिए दो बार चुने गए। भारत की संविधान सभा ने 2 वर्ष, 11 महीने और 18 दिन काम किया और संविधान तैयार किया।

 

मंडल और बाबा साहब : एक दिलचस्प रिश्ता, रोचक संयोग

 

जोगेन्द्र नाथ मंडल साहब की कहानी भी दिलचस्प है। वे पाकिस्तान में ही रह गए। मजेदार संयोग यह है कि बाद में यहां डॉ. अम्बेडकर भारत की संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बने, उधर वहां जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान की संविधान सभा के पहले अस्थायी अध्यक्ष बने; दोनों ही इन देशों के पहले क़ानून मंत्री भी बने।

 

जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान के पहले मंत्रिमंडल में क़ानून मंत्री, श्रम मंत्री और कश्मीर तथा राष्ट्रमंडल मामलों के मंत्री बने। तब लियाकत अली प्रधानमंत्री थे। तीन साल तक मंत्री रहने के बाद अक्टूबर 1950 में मंत्रीमंडल से इस्तीफा देकर जोगेंद्र नाथ मंडल भारत आ गये। भारत में उनकी राजनीतिक सक्रियता कोई ख़ास नहीं रही। लगभग गुमनामी की जिन्दगी जीने के बाद 5 अक्टूबर, 1968 को पश्चिम बंगाल में उन्होंने अंतिम सांस ली।

 

इधर बाबा साहब और उधर मंडल साहब का दो नवआज़ाद देशों की संविधान सभाओं में शीर्ष हैसियत पाना महज संयोग भर नहीं था। यह इन दोनों की असाधारण बुद्धिमत्ता के प्रति सम्मान के साथ, उससे कहीं ज्यादा सामाजिक शोषण के सदियों तक शिकार रहे तबकों की मुक्ति की छटपटाहट और उसके लिए किए गए संघर्षों की अनुगूंज थी। इसी के साथ इन नए आज़ाद देशों द्वारा इस तरह के शोषण के खात्मे के साथ अपनी नयी शुरुआत करने की कामना भी थी। यह बात अलग है कि बाद में शासक वर्गों ने इसे कभी निबाहा नहीं।

 

सिर्फ संविधान निर्माता नहीं थे डॉ. अम्बेडकर

 

डॉ. अम्बेडकर संविधान निर्माता माने जाते हैं। नि:स्संदेह वे ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन थे और विराट बहुमत से चुने गए थे। संविधान में उनके विजन – नजरिये – का महत्वपूर्ण योगदान है। किन्तु उन्हें यहीं तक सीमित रखना उनके वास्तविक रूप को छिपाने की साजिश का हिस्सा बनना होगा। गांव-गांव में डॉ. अम्बेडकर के पुतले खड़े कर दिए हैं, जिसमें उनके हाथ में संविधान की किताब पकड़ा दी गई है। वह किताब जिसके बारे में बाद के वर्षों में, खासकर मृत्यु के 3-4 वर्ष पहले से ही उन्होंने काफी कुछ कहना शुरू कर दिया था। असली अम्बेडकर जाति व्यवस्था का सबसे सुव्यवस्थित अध्ययन करने वाले व्यक्ति हैं, जाति शोषण के अंत – जातियों के विध्वंस की बात करने वाले ‘बाबा साहब’ हैं। (प्रसंगवश बाबा साहब का यह संबोधन उन्हें कामरेड आरबी मोरे ने दिया था। कामरेड मोरे कम्युनिस्ट थे, बाद में सीपीएम के नेता रहे, विधायक रहे। वे 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा के लखनऊ स्थापना सम्मेलन में भी शामिल रहे।) बाबा साहब का अनोखा योगदान यह है कि उन्होंने जाति और वर्ण के द्वैत की अद्वैतता – मतलब इनके रूप में अलग अलग होने और उसी के साथ सार में एक-सा होने – को समझा और दोनों ही तरह के शोषण के खिलाफ लड़ाई को ही सामाजिक मुक्ति की गारंटी माना।

 

डॉ. अम्बेडकर की पहली राजनीतिक पार्टी का नाम था इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी

 

डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पहली राजनीतिक पार्टी 15 अगस्त 1936 को बनाई नाम रखा इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी। इसका झंडा लाल था। इसके घोषणापत्र में उन्होंने साफ़-साफ शब्दों में कहा था कि “भारतीय जनता की बेड़ियों को तोड़ने का काम तभी संभव होगा जब आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की असमानता और गुलामी के खिलाफ एक साथ लड़ा जाए।”एक फेबियन होने के नाते भले वे वर्ग की क्लासिकल आधुनिक परिभाषा की संगति में नहीं थे। मगर भारत में आर्थिक और सामाजिक शोषण के शिकार तबकों की वर्गीय बनावट के प्रति सजग थे। मोटे तौर पर फेबियनवाद एक तरह की ऐसी विचारधारा रही, जो बिना क्रान्ति के समाजवाद, बराबरी और लोकतंत्र लाना चाहती थी। उसकी भाषा मार्क्सवाद की तरह नहीं थी, इसलिए उन्हें समझने के लिए मार्क्सिस्ट जॉर्गन की वर्तनी कारगर नहीं होगी। मगर बाबा साहब ने भारतीय समाज के मामले में वर्ण और वर्ग की पारस्परिक पूरकता – ओवरलेपिंग समझी थी। इसी आधार पर उन्होंने अपनी सक्रियता के दायरे तय किए। यही वजह है कि महाड़ के सत्याग्रह, चावदार तालाब के पानी की लड़ाई लड़ने के साथ, मनु की किताब जलाने और गांधी से तीखी बहस करने के बीच वे ट्रेड यूनियन बनाने और मजदूरों की लड़ाई लड़ने का भी समय निकाल लेते थे।

 

बाबा साहब ने जाति का वर्ग ही नहीं, जेंडर भी पहचाना

 

उनका सबसे अधिक योगदान इस देश की महिलाओं के अधिकारों के लिए उनका संघर्ष था। बाबा साहब ने जाति का क्लास ही नहीं पहचाना था – उन्होंने जाति का जेंडर भी ढूंढा था। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अपनी थीसिस में उन्होंने लिखा कि “जाति की मुख्य विशेषता जाति के अंदर ही शादी करना है। कोई स्त्री अपनी इच्छा से शादी नहीं कर सकती। इसके लिए प्रेम पर भी रोक लगा दी गई। बाल विवाह की कुरीति और विधवाओं के साथ सलूक तथा विधवा विवाह पर रोक इसी के लिए हैं।”

 

जाति शोषण की दीर्घायुता के जेंडर की पहचान उनका एक बड़ा मौलिक काम था। भारत के इस पहले कानून मंत्री ने महिलाओं के हक़ों के प्रति अपने समर्पण की वजह से अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, जब लोकसभा में हिंदू कोड बिल के खिलाफ तमाम जनसंघी और तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल सहित तथाकथित प्रगतिशील कांग्रेस के नेता भी खड़े हो गए।

 

भारत के संविधान की मौलिक विशिष्टता

 

भारत का संविधान कई मामलो में अनोखी किताब है। भारत में दर्शन, साहित्य की बहुत विपुल सम्पदा मौजूद है। आदिवासी भाषाओं को छोड़ दें, तो दुनिया की सबसे पुरानी भाषा तमिल है, उसका संगम साहित्य है। संस्कृत/प्राकृत जैसी प्राचीन और नयी सैकड़ों भाषाएं, हजारों बोलियां हैं। इनमें खूब समृद्ध साहित्य है। किन्तु इस 5000 वर्ष के इतिहास में संविधान वह पहली किताब है, जो हर तरह के श्रेणीक्रम, जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, क्षेत्र के आधार पर ऊंच-नीच, गैरबराबरी को प्रतिबंधित करती है। उसे दंडनीय अपराध बनाती है। उन असमानताओं को आपराधिक और अमानवीय बताती है, जिन्हें कुछ शातिर धूर्तों ने धर्म का बाना पहना दिया था। भगवानों की सील, मोहर, ठप्पा लगवाकर बाध्यकारी बना दिया था।

 

डॉ. अम्बेडकर ने सदियों से बंद दरवाजा खोला था

 

यह कोई मामूली काम नहीं था – यह बहुत बड़ा काम था। इसने भारतीय समाज – सोये, ठहरे हुए, जड़ संबंधों में जकड़े समाज के रूपान्तरण की सीढ़ियों का सदियों से बंद दरवाजा खोला था। जैसे एक ही बात, महिलाओं को मतदान देने की ले लें। संविधान में यह अधिकार उस समय दिया गया, जब अनेक कथित विकसित देशों में भी यह नहीं था। जैसे स्वयं में और समाज में वैज्ञानिक रुझान और चेतना विकसित करने का काम धारा 51 ए (एच) के रूप में नागरिक के बुनियादी कर्तव्यों – फंडामेंटल ड्यूटी – में शामिल किया गया; जैसे आमदनियों में 1/10 से अधिक अनुपात न होने, संपत्ति और दौलत का केन्द्रीयकरण न होने देने वाली नीतियां बनाने के निर्देश सरकारों पर आयद किए गए।

 

आज यह सब उलटा जा रहा है

 

मौजूदा समय विडम्बना का समय है। बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जाए, तो देश और समाज एक ऐसे वर्तमान से गुजर रहा है, जिसमें प्राचीन और ताजे इतिहास में, अंग्रेजों की गुलामी से आजादी के लिए लड़ते-लड़ते जो भी सकारात्मक उपलब्धि हासिल की गई थी, वह दांव पर है। भविष्य में समाज को धकेल कर उसे मध्ययुग में पहुंचाने पर आमादा अन्धकार के पुजारी पूरे उरूज़ पर हैं। संविधान और संसदीय लोकतंत्र निशाने पर है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा उलटी जा रही है। मनुष्यों के बीच समानता और हर तरह की गैरबराबरी को मिटा देने की संविधान प्रदत्त समझदारी को अपराध, यहां तक कि राष्ट्रद्रोह बताया जा रहा है। एक अम्बानी के 90 करोड़, एक अडानी की 112 करोड़ प्रति घंटे कमाई देख स्पष्ट है कि संपत्ति के केन्द्रीकरण की तो कोई सीमा ही नहीं बची। कमाई और लूट समानार्थी शब्द बन गए हैं। लोकतंत्र के चारों खम्भे डगमग कर रहे हैं। न्यायपालिका तक अछूती नहीं रही है। इधर बाकी सब को अधीनस्थ दास बनाने को ही राज चलाने का सही तरीके मानने वाले चतुर दुनिया के खुदगर्ज बड़े दानवों के मातहत और सेवक बनने पर गर्वित और गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अंधविश्वास के घंटे-घड़ियाल खुद संवैधानिक पदों पर बैठे लोग बजा रहे हैं। असहमतियों को कुचल कर, विमर्श को प्रतिबंधित करके आज को घुटन भरा बनाकर आगामी कल को आशंकाओं भरा बना दिया गया है। संविधान के फंडामेंटल राइट्स मूलभूत अधिकार छीने जा रहे हैं।

 

ऐसी स्थिति क्यों आई ?

 

इस पर आने से पहले यह जानना ठीक होगा कि संविधान क्या है? यह कैसे आया ? क्या संविधान सभा की बहसों से निकला संविधान ? नहीं !! कोई भी बहस या मंथन या चर्चा शून्य में नहीं होती – वास्तविक परिस्थितियों की बुनियाद पर खड़ी होती है। हर विमर्श की एक निरंतरता होती है। यह किताब 1857 के महाविप्लव से शुरू हुए महामंथन का नतीजा थी, जिसे 1919 के जलियांवाला बाग़ से तेज और व्यवस्थित रफ़्तार मिली। क्रांतिकारी और स्वतन्त्रता संग्राम की अनेक धाराएं लड़ती भी थीं, फांसी भी चढ़ती थीं, जेल भी जाती थीं और इसी के साथ बहस भी करती थीं। भगतसिंह की धारा, कांग्रेस में चली बहसें, गांधी, नेहरू, अम्बेडकर, पेरियार, कम्युनिस्ट, समाजवादी, मजदूर-किसान-छात्र आंदोलन, सांस्कृतिक आंदोलन, अनेक जागरण इसी तरह की धाराएं थीं। सबसे बढ़कर रूस की समाजवादी क्रान्ति से पैदा हुई चकाचौंध का असर था। इस मंथन के तीन आयाम थे। एक : गुलाम कैसे बने, दो : आजाद कैसे होंगे, तीन : आजादी के बाद ऐसा क्या करेंगे, ताकि भविष्य में कभी गुलाम न बने। मोटे तौर पर भारत का संविधान इस बहस का आम स्वीकार्य सार है।

 

आज मंडराते खतरे न अनायास हैं, न अप्रत्याशित

 

आज संविधान और उसमें निहित लोकतंत्र सहित बाकी समझदारियों पर जो खतरे मंडरा रहे हैं, वे अनायास नहीं है। वे अप्रत्याशित भी नहीं हैं। इनके बारे में इसके निर्माता सजग थे – उन्हें इसकी आशंका थी। खुद डॉ. बीआर अम्बेडकर जी ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने आख़िरी भाषण में कहा था कि : “संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे, तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा।”

 

इसी भाषण में बाबा साहब ने कहा था कि “अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति – भले वह कितना ही महान क्यों न हो – के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे, संविधान और लोकतंत्र’ के लिए खतरनाक स्थिति है।” इसे और साफ़ करते हुए वे बोले थे कि “राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।” 1975 से 77 के बीच आतंरिक आपातकाल भुगत चुका देश पिछले छह वर्षों से जिस भक्त-काल और एकल पदपादशाही को अपनी नंगी आंखों से देख रहा है, उसे इसकी और अधिक व्याख्या की जरूरत नहीं है। यह बर्बर तानाशाही का रास्ता है – संविधान तो अलग रहा मनुष्यता के निषेध का रास्ता है।

 

कहां आ गये ? क्यों और कैसे आ गये ?

 

सवाल सिर्फ इतना भर नहीं है कि अंग्रेजों के भेदियों और बर्बरता के भेड़ियों के साथ सहअस्तित्व करते करते ये कहां आ गए हम ? सवाल इससे आगे का है : क्यों और कैसे आ गए, का भी है। इसके रूपों को डॉ. अम्बेडकर की ऊपर लिखी चेतावनी व्यक्त करती है, तो इसके सार की व्याख्या उन्होंने इसी भाषण में दी अपनी तीसरी और बुनियादी चेतावनी में की थी। उन्होंने कहा था कि : ‘’हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया – मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढांचे में दो बातें अनुपस्थित हैं। एक स्वतन्त्रता (लिबर्टी), दूसरी भाईचारा-बहनापा (फेटर्निटी)।” उन्होंने चेताया था कि “यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ, तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।”

 

मनु दोबारा लौट रहे हैं, यह झूठी बात है। सच्ची बात यह है कि यह बंदा कभी कहीं गया ही नहीं था। कभी भेष बदलकर, तो अक्सर बिना भेष बदले ही घूम रहा था यत्र तत्र सर्वत्र। समाज, संस्थाओं, भाषा, बर्ताब यहां तक कि हमारे घर, परिवार, संगठन, आंदोलन तक में बैठा रहा धूनी रमाकर, अपने पांव छुआता हुआ, ढोक लगवाता हुआ। कभी कथित रीति-रिवाजों, परम्पराओं की चादर ओढ़कर, तो कभी पर्वों, उत्सवों, त्यौहारों के दुशाले लपेटकर। अक्सर देश के नेताओं और प्रमुख व्यक्तियों को अपने आगोश में चपेटकर।

 

जाहिर सी बात है, यदि एक जगह अन्धेरा पाल पोस कर रखा जाए, तो दुनिया में कहीं भी रोशनी सलामत और निरापद नहीं है। सरल सी बात है कि यदि समाज लोकतांत्रिक नहीं है, तो राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था कैसे लोकतांत्रिक बनी रह पाएगी। और इससे आगे की थोड़ी-सी कर्कश लगने वाली बात यह है कि यदि परिवार लोकतांत्रिक नहीं है, तो भला समाज कैसे लोकतांत्रिक बनेगा।

 

आज के समय में मिशन का अर्थ

 

इसलिए बिलाशक भारत, उसके संविधान और लोकतंत्र पर झपट रही भेड़ियों की फ़ौज से लड़ना होगा। समानता की धारणा, संविधानसम्मत समझ की तरफ लपक रही लपटों को बुझाने के लिए राजनीतिक मोर्चे पर लड़ना होगा। ठीक वैसे ही, जैसे गांव की आग बुझाते हैं – पीने का पानी, कुएं, हैंडपम्प का पानी, पोखर, तालाब का पानी और जहां-जैसा वैसा उजला पानी, कम उजला पानी होगा – जुटाना होगा। इसी के साथ, इसके बाद नहीं, इसी के साथ लड़ना होगा। मगर इसी के साथ-साथ मनु को देश निकाला देने के लिए विशेष जिद के साथ लड़ना होगा। यह लड़ाई बाद में फुर्सत से, अलग से नहीं लड़ी जाएगी। एक सत्ता लड़ी जाएगी। और यह भी कि यह लड़ाई समाज में ही नहीं लड़ी जाएगी – यह घर, परिवार और अपने खुद के भीतर भी लड़ी जाएगी। आज यदि बाबा साहब होते तो उनके मिशन का भी यही अर्थ होता।

 

इसे लड़ना – और जीतना होगा – साथ साथ। क्या ऐसा होगा ? ऐसा ही होगा – क्योंकि इतिहास हादसों के नहीं, निर्माणों के होते हैं।

 

©बादल सरोज, संपादक, लोकजतन

(लेखक पाक्षिक लोकजतन के संपादक और अभा किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : badal.saroj@gmail.com (मो) 94250-06716)


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