गुरु घासीदास व सतनाम आंदोलन विषय पर रायपुर में एक दिवसीय राष्ट्रीय बौद्विक संगोष्ठी l ऑनलाइन बुलेटिन
रायपुर l ऑनलाइन बुलेटिन l गुरु बाबा गुरुघासीदास जी के 265 वीं जयंती के अवसर पर रायपुर में 19 दिसंबर 2021 रविवार को “गुरु घासीदास एवं सतनाम आंदोलन” विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय बौद्विक संगोष्ठी रायपुर के सिविल लाइन स्थित न्यू सर्किट हाउस के ऑडोटोरियम हॉल सिविल लाइन में आयोजित किया गया।
कार्यक्रम का आगाज संत महापुरुष बाबा गुरु घासीदास को श्रद्धांजलि देते हुए एवं सभी आगंतुकों को पुष्प गुच्छ से विशेष स्वागत के साथ किया गया। संगोष्ठी में विजवक्तव्य रघुनंदन साहू जी द्वारा ओजपूर्ण एवं क्रांतिकारी भाव से स्लोगन के द्वारा प्रस्तुत किया गया।
जिसमें आयोजन समिति के विशेष आमंत्रण पर स्वतंत्र रेलवे बहुजन कर्मचारी यूनियन दपमरे रायपुर के डिवीजीनल सेक्रेटरी भोला चौधरी भी शामिल हुए।
उन्होंने गुरु घासीदास एवं सतनाम आंदोलन विषय पर अपनी तर्के एवं तथ्यपूर्ण बाते रखते हुए कहा कि बाबा गुरु घासीदास मानवता का संदेश देनेवाले अंधविश्वास,पाखंडवाद, रूढ़िवाद अमानवीय छुआछूत भेदभाव सबके खिलाफत करने वाले संत के साथ साथ एक क्रांतिकारी एवं विद्रोही धर्म गुरु थे।
संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त जातिगत विषमताओं को नकारा। उन्होंने वर्ण व्यवस्था और जातिव्यवस्था के तहत स्वघोषित ब्राम्हणों के प्रभुत्व को नकारा और कई वर्णों, जातियो में बांटने वाली वर्ण व्यवस्था एवं जाति व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया।
मनखे मनखे एक समान की सिद्धान्त के प्रतिपादन करते हुए उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति एक समान नैसर्गिक रूप आए माता और पिता के संबंध से उत्पन्न होता है और जन्मजात सामाजिक रूप से समान हैसियत और महत्व रखता है। व्यक्ति समाज मे अवसर सुविधा और साधन अनुसार शिक्षित सम्पन्न बनकर समाज मे सम्मान और इज्जत अपने योग्यता अनुरूप प्राप्त करता है। उन्होंने आगे कहा कि गुरू घासीदास ने पाखंड अंधविश्वास उर मानवीय शोषण, शोषण का विरोध करते हुए वर्ग विशेष के हित मे मानवनिर्मित स्थापित काल्पनिक मूर्तियों की पूजा को वर्जित किया।
उनका मानना था कि कि वर्ण व्यवस्था, पुरोहितवाद और काल्पनिक ईश्वर भगवान के रूप में मूर्ति पूजा में गहरा षड्यंत्रकारी सम्बन्ध है।
बहुजन चिंतक विष्णु बघेल ने विषय पर अपनी बातें छत्तीसगढ़ी भाषा मे प्रस्तुत्त करते हुवे कहा कि छत्तीसगढ़ी लोक काव्य (पंथी गीत) के बहाने दलित साहित्य स्रोत की तलाश करें तो उसका उद्गम झोपड़ियों से हुआ। जो शास्त्रीय परंपरा और रूढ़ियों के विरोध में बाहर आया। बाद के दिनों में इसकी तेजस्विता और प्रखरता के कारण इसका विकास होता गया। लेकिन दुखद स्थिति रही कि राजसत्ता के कुछ चाटूकारों तथा कुछ सतनामी लेखकों ने भी ‘गुरु घासीदास’ को चमत्कारी बाबा घोषित कर उनके व्यक्तित्व को एकांगी बना दिया।
सवर्ण लेखकों तथा इतिहासकारों ने तो गुरू घासीदास जी को हिंदुत्व के रंग में रंगने में कोई कोर कसर छोड़ी ही नहीं। उनका जीवन ऐसी पहेली बना दिया गया कि बहुजन समाज के शोधार्थी जितना पहेलियों को हल करने का आज प्रयास करते हैं उतना ही वे उलझते जाते हैं।
सुंदरलाल शर्मा विश्विविद्यालय की कुलसचिव प्रो. डॉ. इंदू अनंत सतनाम धर्म के सिद्धांत ” मंदिरवा में का करे जाबो, अपने घट के देवला मनाइवो” रूपी महत्वपूर्ण पंक्ति के साथ प्रारंभ किए। उन्होंने आधुनिक समाज मे सतनाम धर्म महत्व और प्रासंगिकता पर बाते रखते हुई बोली कि सतनामी समाज में कन्याओं और महिलाओं के साथ व्यवहार किया जाता है और विशेष सम्मान होती है। इसलिए वैवाहिक पहल वर पक्ष के द्वारा किया जाता है।
अतिथि वक्ता के रूप में महादेव कावरे आईएएस अपनी बातें रखते हुए व्यक्तिगत सामाजिक जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता को स्थापित किया। सेवा काल मे समाज के लिए बढ़चढ़कर भागीदारी निवर्हन की अनुभवों को रेखांकित भी किया। और भविष्य में तत्पर रहने की आश्वासन भी प्रकट किया।
इस एकदिवसीय बौद्धिक संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रुप में दिल्ली विश्विविद्यालय इतिहास विभाग के प्रो.डॉ रतन लाल अपनी ओजस्वी प्रस्तुति देतु हुए कहा कि बाबा गुरु घासीदास बस्तुतः एक संत काम विद्रोही और क्रांतिकारी ज्यादा रहे है लेकिन मुख्यधारा के सहित्यकारों ने उन्हें मात्र संत के रूप में ही प्रस्थापित किया। जो बहुजन महापुरुषों क्रांतिकारी धर्मगुरुओं को विस्मृत करने के एक पौराणिक षड्यंत्र का हिस्सा है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता सामाजिक चिंतक एवं लेखक टीआर खुंटे जी द्वारा किया गया। वे अपनी अध्यक्षीय उद्बोधन के रूप में सतनाम पंथ’ सप्त सिद्धांत के ऊपर विस्तृत प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि गुरु घासीदास के सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद से परे, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना हैं।
इनके द्वारा दिये गये उपदेशों से समाज के असहाय लोगों में आत्मविश्वास, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने विरोध की शक्ति का संचार हुआ। सामाजिक तथा आध्यात्मिक जागरण की आधारशिला स्थापित करने में ये सफल हुए जिसके कारण छत्तीसगढ़ में इनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम पंथ के आज भी लाखों अनुयायी हैं।
संगोष्ठी के अंत में द फोर्थ मिरर राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के प्रवेशांक का विमोचन भी आमंत्रित अतिथियों एवं उपस्थित विशेष आगंतुकों द्वारा किया गया ।
इस एकदिवसीय राष्ट्रीय बौद्धिक संगोष्ठी का संचालन डॉ नरेश कुमार साहू जी स्वागत उद्बोधन श्री रघुनंदन साहू जी एवं धन्यवाद ज्ञापन श्री गणेश सोनकर जी द्वारा किया गया।
संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रुप में दिल्ली विश्विविद्यालय इतिहास विभाग के प्रो. रतन लाल एवं पं. सुंदरलाल शर्मा विश्विविद्यालय की कुलसचिव प्रो. डॉ. इंदू अनंत के साथ अतिथि के रूप में आईएएस महादेव कावरे, पूर्व आईएएस दिलीप वासनीकर, अजाक्स के अध्यक्ष लक्ष्मण भारती, बहुजन चिंतक विष्णु बघेल, सामाजिक चिंतक एवं लेखक टीआर खुंटे, सामाजिक कार्यकर्ता एवं चिंतक रुसेन कुमार, कबीर आश्रम मंदरौद के संत भुनेश्वर साहेब,सामाजिक अम्बेडकरवादी चिंतक विश्वास मेश्राम, अखिलेश एडगर , रामशंकर यादव, रतन गोंडाने , डॉ. नरेश कुमार साहू व जागव किसान के प्रदेश अध्यक्ष रघुनंदन साहू,अग्निस देव, गणेश सोनकर,दलगंजन सिंह कुर्रे, चंद्रप्रकाश बौद्ध सहित लगभग 200 लोगो की इस गरिमामयी संगोष्ठी में भागीदारी रही।