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6 दिसम्बर बाबा साहब डॉ अम्बेडकर जी के महापरिनिर्वाण दिवस पर विशेष | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

राजेश कुमार बौद्ध

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय-   संपादक, प्रबुद्ध वैलफेयर सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश.


 

राजधानी दिल्ली रात के 12 बजे थे। रात का सन्नाटा और अचानक दिल्ली, मुम्बई, नागपुर में चारों और फोन की घंटीया बज उठी। राजभवन मौन था, संसद मौन थी, राष्ट्रपती भवन मौन था, हर कोई कस्म कस्म में था।

 

शायद कोई बड़ा हादसा हुआ था, या किसी बड़े हादसे या आपदा से कम नहीं था। कोई अचानक हमें छोड़कर चला गया था। जिसके जाने से करोड़ों लोग दुःख भरे आँसुओं से विलाप कर रहे थे, देखते ही देखते मुम्बई की सारी सड़कें भीड़ से भर गयीं पैर रखने की भी जगह नहीं बची थी मुम्बई की सड़कों पर क्योंकि पार्थिव शरीर मुम्बई लाया जाना था। और अंतिम संस्कार भी मुम्बई में ही होना था।

 

नागपुर, कानपुर, दिल्ली, मद्रास (अब चेन्नाई), बेंगलौर, पुणे, नाशिक और पूरे देश से मुम्बई आने वाली रेलगाड़ियों और बसों में बैठने को जगह नहीं थी। सब जल्दी से जल्दी मुम्बई पहुंचना चाहते थे और देखते ही देखते अरब सागर वाली मुम्बई जनसागर से भर गयी।

कौन था ये शख्स ?

 

जिसके अंतिम दर्शन की लालसा में जनसैलाब रोते- बिलखते मुम्बई की ओर बढ़ रहा था। देश में ये पहला प्रसंग था जब बड़े- बुजुर्ग, छोटे- छोटे बच्चों जैसे छाती पीट- पीट कर रो रहे थे। महिलाएं आक्रोश कर रहीं थीं और कह रहीं थीं मेरे पिता चले गये, मेरा बाप चला गया। अब कौन है हमारा यहां ? चंदन की चिता पर जब उन्हें रखा गया तो लाखों दिल रुदन से जल रहे थे।

 

अरब सागर अपनी लहरों के साथ किनारों पर थपकता और लौट जाता फिर थपकता फिर लौट जाता शायद अंतिम दर्शन के लिये वह भी जोर लगा रहा था। चिता जली और करोड़ों लोगों की आंखे बरसने लगी। किसके लिये बरस रही थी ये आंखे ? कौन था इन सबका पिता ? किसकी जलती चिता को देखकर जल रहे थे करोड़ों दिलों के अग्निकुन्ड ?

 

कौन था यहां जो छोड़ गया था इनके दिलों में आंधियां, कौन था वह जिसके नाम मात्र लेने से गरज उठती थी बिजलियां, मन से मस्तिष्क तक दौड़ जाता था ऊर्जा का प्रवाह, कौन था वह शख्स जिसने छीन लिये थे खाली कासीन के हाथों से और थमा दी थी कलम लिखने के लिये एक नया इतिहास, आंखों में बसा दिये थे नये सपने, होठों पे सजा दिये थे नये तराने, स्वाभिमान- अभिमान को दास्तां की ज़ंजीरें तोड़ने के लिये दिया प्रज्ञा का शस्त्र।

 

चिता जल रही थी अरब सागर के किनारे और देश के हर गांव के किनारे में जल रहा था एक श्मशान, हर एक शख्स में और दिल में भी। जो नहीं पहुंच सका था अरब सागर के किनारे एक टक देख रहा था वह, उसकी प्रतिमा या गांव के उस झंडे को जिसमे नीला चक्र लहरा रहा था, भुख, प्यास भूलकर अपने समूह के साथ उस जगह जिसे वह बौद्ध विहार कहते थे।

 

गांव, शहर में सारे समूह भूखे प्यासे बैठे थे ? उनकी चिता की आग ठंडी होने का इंतजार करते हुये, कौन सी आग थी जो वह लगाकर चला गया था ? क्या विद्रोह की आग थी ? या थी वह संघर्ष की आग भूखे, नंगे बदनो को कपड़ो से ढकने की थी आग ? आसमानता की धजीया उड़ाकर समानता प्रस्थापित करने की आग ?

 

चवदार तालाब पर जलाई हुई आग अब बुझने का नाम नहीं ले रही थी। धू -धू जलती मनुस्मृति धुंए के साथ खत्म हुई थी। क्या यह वह आग थी ? जो जलाकर चला गया था। वह सारे ज्ञानपीठ, स्कूल, कॉलेज मृत्युभूमि जैसे लग रहा था। युवा, युवतियों की कलकलाहट आज मौन थी जिन्होंने हाथ में कलम थमाई, शिक्षा का महत्व समझाया, जीने का मकसद दिया, राष्ट्रप्रेम की ओत प्रोत भावना जगाई वह युगंधर, प्रज्ञासूर्य काल के कपाल से ढल गया था। जिस प्रज्ञातेज ने चहरे पर रौशनी बिखेरी थी क्या वह अंधेरे में गुम हो रहा था ? बड़ी अजीब कसमकस थी भारत का महान पत्रकार, अर्थशास्त्री, दूरद्रष्टा क्या द्रष्टि से ओजल हो जायेगा ?

 

सारे मिलों पर ऐसा लग रहा था जैसे हड़ताल चल रही हो सुबह शाम आवाज़ देकर जगाने वाली धुंआ भरी चिमनियां भी आज चुपचाप थी, खेतों में हल नहीं चला पाया किसान क्यों ? सारे ऑफिस, सारे कोर्ट, सारी कचहरी सूनी हो गयी थी। जैसे सूना हो जाता है बेटी के बिदा होने के बाद बाप का आँगन। सारे खेतीहर, मजदूर, किसान असमंजस में थे ये क्या हुआ ? उनके सिर का छत्र छिन गया। वह जो चंदन की चिता पर जल रहा है उसने ही तो जलाई थी ज्योति मजदूर आंदोलन की, वही तो था आधुनिक भारत में मसीहा, सारी मिलों पर होती थी जो हड़तालें, आंदोलन अपने अधिकारों के लिये उसकी प्रेरणा भी तो वही था।

 

जिसने मजदूरों को अपना स्वतंत्र पक्ष दिया और संविधान में लिख दी वह सभी बातें जिन्होंने किसानों, खेतीहारों, मज़दूरों के जीवन में खुशियां बिखेरीं थीं।

 

नागपुर की दीक्षाभूमी पर मातम बस रहा था, लोगों की चीखें सुनाई दे रहीं थीं “बाबा चले गये” “हमारे बाबा चले गये” आधुनिक भारत का वह सुपुत्र जिसने भारत में लोकतंत्र का बीजारोपण किया था, जिसने भारत के संविधान को रचकर भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया था। हर नागरिक को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का अधिकार दिया था, वोट देने का अधिकार देकर देश का मालिक बनाया था, क्या सचमुच वह शख्स नहीं रहा ?

 

कोई भी विश्वास करने को तैयार नहीं था। लोग कह रहे थे “अभी तो यहां बाबा की सफेद गाड़ी रुकी थी”, “बाबा गाड़ी से उतरे थे सफेद पोशाक में”, “देखो अभी तो बाबा ने पंचशील दिये थे, 22 प्रतिज्ञाओं की गूंज अभी आसमान में ही तो गूंज रही थी” वो शांत होने से पहले बाबा शांत नहीं हो सकते।

 

भारत के इतिहास ने नयी करवट ली थी जन सैलाब मुम्बई की सड़कों पर बह रहा था।

 

भारतीय संस्कृति में तुच्छ कहलाने वाली नारी जिसे हिन्दू कोड बिल का सहारा बाबा ने देना चाहा और फिर संविधान में उसके हक आरक्षित किये ऐसी माँ- बहनें लाखों की तादाद में श्मशान भूमि पर थीं। यह भारतीय सड़ी गली धर्म परम्पराओं पर एक जोरदार तमाचा था क्योंकि जिन महिलाओं को श्मशान जाने का अधिकार भी नहीं था ऐसी “3 लाख” महिलाएँ बाबा के अंतिम दर्शन को पहुंचीं थीं। जो अपने आप में एक विक्रम था।

 

भारत का यह युगंधर, संविधान निर्माता, प्रज्ञातेज, प्रज्ञासूर्य, महासूर्य, कल्प पुरुष नव भारत को नव चेतना देकर चला गया, एक ऊर्जा स्त्रोत देकर समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुता का पाठ पढ़ाकर। उस प्रज्ञासूर्य की प्रज्ञा किरणों से रोशन होगा हमारा देश, हमारा समाज और पूरे विश्वास के साथ हम आगे बढ़ेंगे हाथों में हाथ लिये मानवता के रास्ते पर जहां कभी सूर्यास्त नहीं होगा, जहां कभी सूर्यास्त नहीं होगा, जहां कभी सूर्यास्त नहीं होगा।

 

जय भीम- जय भीम और केवल जय भीम, शत्- शत् नमन अर्पित करता हूँ और करता रहुंगा।

 

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