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पूना संधि | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय- संपादक, प्रबुद्ध वैलफेयर सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश


 

पुणे समझौता दूसरा गोलमेज सम्मेलन, 1931 अब तक डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर जी आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे…

 

उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की…

 

डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास करमचंद गांधी की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया…

 

डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे… 

 

उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो।

 

8 अगस्त,1930को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान डॉ0 अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है…

 

हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ… राजनीतिक शक्तिशोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने मे निहित है।

 

उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा…. उनको शिक्षित होना चाहिए… एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है….

 

इस भाषण में डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर जी ने कांग्रेस और मोहनदास गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की बाबा साहब डॉ0 अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया।

 

यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था…इसका मुख्य कारण था कि ये “उदार” राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे…

 

डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनके 1931 में लंदनमें दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया…

 

यहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी…

 

गांधी को लगता था की, सवर्णों को अस्पृश्यता भूलाने के लिए कुछ अवधी दी जानी चाहिए, यह गांधी का तर्क गलत सिद्ध हुआ जब सवर्ण हिंदूओं द्वारा पूना संधि के कई दशकों बाद भी अस्पृश्यता का नियमित पालन होता रहा..

 

1932 में जब ब्रिटिशों ने डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की, तब मोहनदास गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया…

 

मोहनदास गांधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा, हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की गांधी के दलिताधिकार विरोधी अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू औरमदन मोहन मालवीय ने डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं…

 

अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर जी ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली…

 

मोहनदास गांधी ने अपने गलत तर्क एवं गलत मत से संपूर्ण अछूतों के सभी प्रमुख अधिकारों पर पानी फेर दिया…

 

इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश, पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी…

 

गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी स्वर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया….

आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उम्मीदवार चुनते.. इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म जाति) द्वारा एक नेता चुना जाता…

 

इस आधार पर सिर्फ एक बार सन 1937 में चुनाव हुए..डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर जी 20-25 साल के लिये राजनैतिक आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण यह आरक्षण मात्र 5 साल के लिए ही लागू हुआ…

 

पूना संधी के बारें गांधीवादी इतिहासकार ‘अहिंसा की विजय’ लिखते हैं, परंतु यहाँ अहिंसा तो डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर ने निभाई हैं….पृथक निर्वाचिका में दलित दो वोट देता एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित (पृथक) उम्मीदवार को।

 

ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता।

 

बाद मे डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जी ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया।

 


नोट– उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.


 

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