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पुरुषार्थ “; मानव जीवन के लक्ष्य या उद्देश्य | ऑनलाइन बुलेटिन

©संतोष यादव

परिचय- मुंगेली, छत्तीसगढ़.


 

पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है : मानव खोज की वस्तु…

 

पुरुषार्थचतुष्टय के प्रतिपादक महर्षि मनु जो पृथ्वी के प्रथम पुरुष है, शास्त्रों (वेद, श्रीमद्भागवत गीता और अन्य ग्रंथों में) में मानव जीवन के चार पुरुषार्थ बताया गया है जिसमें चलकर मानव अपनी लंबी जीवन की यात्रा करता है, प्रत्येक मनुष्य जीवन भर इसी चार पुरुषार्थ को पाने में लगा देता है। श्रेष्ठ मनुष्य चारों पुरुषार्थ को प्राप्त लेता है परंतु कुछ मनुष्य दो या तीन पुरुषार्थ को ही अपने जीवनकाल में प्राप्त करते हैं। जो व्यक्ति चारों पुरुषार्थ को प्राप्त कर लेता है वह अपने जीवन के लक्ष्य (उद्देश्य) को पूर्ण कर लेता है, परंतु जो पुरुषार्थ को पूर्णतः प्राप्त नहीं करता है, वह (मनुष्य या आत्मा) फिर से अनेक प्रकार के जीवों के रूप में अपने कर्म अनुसार जन्म लेता है। क्योंकि कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है।

 

पुरुषार्थचतुष्टय हैं –

 

  • (1) धर्म (सत्वगुण धारण करना)
  • (2) अर्थ (धन)
  • (3) काम (इच्छा)
  • (4) मोक्ष (मुक्ति)

 

(1) धर्म- धर्मों रक्षा: रक्षित:

 

अर्थात् जो धर्म की रक्षा करते हैं, धर्म उसकी स्वयं रक्षा करता है। धर्म मानव जीवन का प्रथम पुरुषार्थ है, धर्म का अर्थ है, सत्वगुण को धारण करना, सत्व आचरण करना। सत्य, प्रेम (निःस्वार्थ प्रेम), दया, करुणा, क्षमा, शांति, परोपकार आदि धर्म है। धर्म एक विराट जीवन- पद्धति है, धर्म मानव को पशुता से मानव व महान् बनाता है। धर्म जीवन का दर्शन (दृष्टिकोण) है। हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म एक बहुत ही जटिल अवधारणा है जिसे समझना अत्यंत कठिन है, धर्म उसे कहतें हैं, जिससे मनुष्य, प्राणियों, समाज, प्रकृति, ब्रह्मांड के लिए हितकर (लाभप्रद) हो अर्थात् जिस कार्य, विचार, परंपरा, संस्कार में परोपकार (लोककल्याण) की भावना निहित हो वही धर्म है।

 

मनुष्य को अपने संपूर्ण जीवन धर्म को धारण करना चाहिए, बिना धर्म के मानव जीवन का कोई मूल्य ही नहीं है अर्थात् मूल्याहीन है। धर्म के मार्ग पर चलकर ही आगे की पुरुषार्थ को प्राप्त किया जा सकता है। जो व्यक्ति समाज के लिए जिता है अर्थात् धर्म अनुसार कार्य करता है, मनुष्य, प्राणियों, समाज, प्रकृति, ब्रह्मांड के लिए कार्य करता है उसे स्वयं लाभ होता है, उसके जीवन में मान, सम्मान, धन, यश, कीर्ति सुख, वैभव, ऐश्वर्य प्राप्त होता है। और जो व्यक्ति स्वयं के लिए जिता है (स्वार्थी होता है) वह स्वयं को, परिवार को, जीवों को, समाज को, प्रकृति को, और ब्रह्मांड को, तथा परमात्मा को अज्ञानता के कारण हानि पहुंचाता है।

 

अतः सभी मनुष्य धर्म अनुसार कार्य और व्यवहार करें। वास्तव में धर्म ही हमें सिखाती है कि हम कैसे कार्य और व्यवहार करें। (2) अर्थ (धन) – कहावत है – “धन बिना धर्म नहीं होता है, और धर्म के बिना धन मूल्यहीन है।” अर्थ मानव जीवन का द्वितीय पुरुषार्थ है। धन जीवन जीने के लिए अति आवश्यक है, धन के बिना जीवन चला पाना असंभव है। प्राचीन युग प्रकृतिवादी युग था ।

 

मानव तथा समस्त प्राणी अपनी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से ही पूर्ण कर लेता था, वह कंद- मूल, फल- फूल, जीव- जंतुओं पर्वत, नदी, झरना, पेड़ – पौधे इत्यादि को ही अपना धन मानता था और धर्म अनुसार आचरण (चिंतन, कार्य व व्यवहार करता) था। प्रकृति का सदुपयोग करता था। आज भी कई देशों में आदिवासी समाज प्रकृतिवादी समाज है। परंतु वर्तमान युग प्रकृतिवादी और भौतिकवादी दोनों युग है। आज ज्ञान, रुपए, सोना, चांदी, धान (चावल), गेंहू इत्यादि भी धन के रूप में मान्य है।

 

धन कोई बुरी वस्तु नहीं है, अत्यधिक धन की लालसा ही बुरा है अर्थात् हमारी इच्छा ही बुरा है। धन तो जीवन जीने में, हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक है, तो भला जो दूसरों की सहायता करता है वह बुरा कैसे हो सकता है? यदि कोई मनुष्य अधर्म के मार्ग पर चलकर धन एकत्रित करता है, तो वह धन अतिशीघ्र बढ़ता भी है और घटता भी है, जैसे – “कोई वस्तु जितनी जल्दी गर्म होता है उतनी ही जल्दी ठंडा भी हो जाता है।”

 

अधर्म के मार्ग पर चलकर जो धन या विद्या अर्जित किया जाता है वह उस अधर्मी व्यक्ति के जीते जी ही नष्ट हो जाता है। इसलिए हमें धर्म मार्ग का अनुशरण कर धन अर्जित करना चाहिए। मनुष्य अपनी संतान के लिए धन एकत्रित करता है यदि धर्मानुसार अर्जित किया गया हो तो पुत्र या पुत्री उस धन का मूल्य समझते हैं, धन कई पीढ़ी तक जाता है। और यदि अधर्म मार्ग पर चलकर धन अर्जित किया जाता है तो वही पुत्र या पुत्री उस धन को नष्ट कर देते है। या कोई गंभीर बीमारी या प्राकृतिक क्षति के कारण धन समाप्त हो जाता है।

 

धन की तीन गति शास्त्रों में कही गई है –

 

  • (1)दान देना।
  • (2) उपभोग करना (सदुपयोग करना)।
  • (3) नष्ट हो जाना।

 

चाणक्य के अनुसार मनुष्य जितना भी धन कमाता है, उसे तीन हिस्सों (भाग) में बराबर – बराबर बांटकर खर्च करना चाहिए अर्थात्

 

  • (1) प्रथम भाग (33.44%) को परोपकार, दान, यज्ञ, पूजा, आदि सत्कर्मों में लगाना चाहिए।
  • (2) द्वितीय भाग (33.33%) को भविष्य के लिए बचत के रूप में किसी कार्ययोजना, बैंक, बीमा, कृषि, उद्योग, व्यापार, आदि में लगाना चाहिए।
  • (3) तृतीय भाग (33.33%)को घर, परिवार, मित्र, रिश्तेदार आदि के खान – पान देखरेख, इलाज के कार्य में खर्च करनी चाहिए।

 

(3) काम (इच्छा) –

 

काम तृतीय पुरुषार्थ है काम से तात्पर्य सांसारिक सुख या भौतिक सुखों से है। मानव को जीवन जीने के लिए तीन मूलभूत वस्तुओं की आवश्यकता होती है रोटी, कपड़ा और मकान इन तीनों के अतिरिक्त जो कुछ भी हमारे पास है। वह हमारी इच्छा (कामना) है। वासना है। वासना से तात्पर्य किसी वस्तु को अत्यधिक मात्रा में पाने की इच्छा है।हमारे पांच ज्ञानेंद्रियों (आंख से रूप देखना), कान से श्रवण, नाक गंध (सूंघना), जिव्हा से स्वाद, त्वचा से स्पर्श तथा छठवां इंद्रिय मन में इच्छा) प्रगट होती है, जिससे सुख या दुःख मिलता है, उसे काम या इच्छा कहते हैं। मानव के सारे कार्य (कामना) सुख की प्राप्ति के लिए होती है।

 

मनुष्य अपने कामना पर नियंत्रण रखें धर्म के अनुसार अपनी सात्विक विचार या इच्छा को पूरा करे तब सुख मिलेगा यदि अधर्म का विचार या इच्छा करेगा तो दुःख मिलेगा। जब मानव या आत्मा का काम वासना से विरक्ति या अनासक्ति हो जाता है तब वह मोक्ष की ओर आगे बढ़ता है। जब तक मनुष्य या आत्मा के मन में सांसारिक सुख की इच्छा रहेगा तब तक मनुष्य या आत्मा का मुक्ति (जन्म मरण के चक्र से मुक्ति) संभव नहीं है।

 

(4)मोक्ष –

 

मानव जीवन का चतुर्थ या अंतिम तथा मुख्य पुरुषार्थ मोक्ष है। मोक्ष से तात्पर्य जन्म मरण के चक्र से मुक्त होना है। आत्मा, अजर, अमर अविनाशी, नित्य सत्य, सनातन है। मोक्ष गौतम बुद्ध के अनुसार – ” इच्छा (कामना) ही समाप्त हो जाना ही मोक्ष है।” मोक्ष को ही मुक्ति, निर्वाण, केवल्य आदि नामों से जाना जाता है। मानव धर्म को धारण कर अर्थ (धन) से अपना जीवन निर्वाह करता है। तथा काम से अपनी इंद्रियों को सुख देने का प्रयास करता है, परंतु उसे वह सुख नहीं मिलता जिस सुख की तलाश में मानव जीवन भर भटकता रहता है मानव स्थाई सुख चाहता है परंतु शारीरिक या भौतिक सुख कुछ समय के लिए सुख देता है फिर वह दु:ख में परिवर्तित हो जाता है।

 

सुख तीन प्रकार के होता है –

 

(1) शारीरिक सुख –

 

यह अस्थाई सुख है। शरीर या इंद्रियों के माध्यम से को सुख मिलता उसे शारीरिक सुख कहते हैं।

 

(2) भौतिक सुख-

 

यह अस्थाई सुख है। भौतिक वस्तुओं से को सुख मिलता है उसे भौतिक सुख कहते हैं। जैसे घर, टीवी, फ्रीज, एसी, कार आदि।

 

(3) आत्मिक या आध्यात्मिक सुख –

 

आत्मा या परमात्मा से मिलने वाले सुख से आत्मिक सुख प्राप्त होता है। यह स्थाई सुख है। और सुख, शांति, आनंद, संतोष प्राप्त होता है।

 

आध्यात्मिक सुख प्राप्ति का साधन या मार्ग –

 

  • (1) ज्ञानयोग (ब्रह्मा ज्ञान या आत्मज्ञान)
  • (2) कर्मयोग (निष्काम कर्म)
  • (3) भक्तियोग (अद्वैत भक्ति)

 

इन तीनों योग के द्वारा मनुष्य को आत्मा या परमात्मा का साक्षात्कार होता है। आत्मा का परमात्मा में स्थित होना फिर आत्मा का परमात्मा में समाहित (एकीकार) हो जाना ही मोक्ष है। मोक्ष की प्राप्ति तो मानव (आत्मा) का परम लक्ष्य है। मनुष्य को चाहिए कि चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को परोपकार या लोककल्याण हेतु अर्जित करे और लोककल्याण हेतु इन चारों पुरुषार्थ का सदुपयोग करें। जीवन के अपने सारे कार्य परब्रह्म (परमात्मा) को समर्पित करके करें।

 

इसी में व्यक्ति का (स्वयं का), आत्मा का, परिवार का, समाज का, राज्य का, देश का, विश्व का, ब्रह्मांड का, प्रकृति का तथा परब्रह्म का कल्याण निहित है।

 

 

जय अम्बे गौरी | ऑनलाइन बुलेटिन

 

 


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