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ईश्वर की व्यथा | ऑनलाइन बुलेटिन

©हिमांशु पाठक, पहाड़

परिचय– नैनीताल, उत्तराखंड.


 

 

मैं कहाँ रहूँ,

जहाँ भी रहता हूँ,

आदमी वहीं,

अपने अहम् के साथ,

आ जाता है,

और मेरा उस स्थान में,

रहना दूभर,

कर देता है,

मैं कहाँ  रहूँ।

मैं स्वतंत्र रहना चाहता हूँ,

मुझे बंदी बनाकर,

मंदिर रूपी कैदखाने में,

डाल देता है।

बाहर विचरण करना चाहूँ,

तो दरवाजों में,

ताला डाल देता है ।

मैं कहाँ  रहूँ ।

प्रकृति के सानिध्य में,

रहना चाहता हूँ,

प्रकृति को तहस-नहस,

कर देता है।

वृक्षों के नीचे रहना चाहूँ,

तो वृक्षों को,

काट देता है।

मैं कहाँ रहूँ ।

आदमी का अहम् और मैं,

साथ-साथ तो

नहीं रह सकतें ।

फिर मैं कहाँ रहूँ ।

मैं वनों में रहता हूँ,

वनों को ही,

उजाड़ देतें हैं,

कंदराओं में रहता हूँ,

उसे मंदिर बनाकर,

अपनी कमाई का,

साधन बना देते हैं,

गुफाओं में चैन से,

रहने नहीं देते।

कुछ मूर्ख, जो,

इस गलतफहमी में,

रहते हैं कि,

वो विद्वान हैं,

मुझे भक्तों के साथ,

उनके कर्मों में भी,

रहने नहीं देते,

कभी कर्म-काण्डों पर,

प्रश्नचिन्ह लगाते हैं,

कभी पूजा-पद्धति पर,

अंगुली उठाते हैं,

कभी चढ़ावे पर नजरें,

गड़ाते हैं और,

कभी-कभी तो चमत्कार,

पर अविश्वास कर,

ईश्वर की सत्ता को नकार,

स्वयंभू हो ईश्वर बन जाते हैं

मैं कहाँ रहूँ

एक भक्त मुझे,

निराकार से साकार,

बनाता है।

एक अपने अहम् की, तुष्टी के लिए,

मुझे मंदिर में सजाता है,

और जब मैं,

उसके लिए बेकार,

हो जाता हूँ,

तो मुझे किसी पेड़ के नीचे,

या फिर पानी में,

प्रवाहित कर आता है,

और दूसरा आदमी,

मुझे कूड़ा समझ,

एक स्थान से,

उठाकर अन्यत्र फेंक,

आता है,

इस तरह अपने अहम् में,

मेरा तिरस्कार करता है,

मेरे भक्त अब कहाँ हैं,

मैं क्यों रहूँ इस,

भूलोक में,

मैं कहाँ रहूँ  …


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