अब वो डरने लगे हैं | ऑनलाइन बुलेटिन
©राजेश दयोरा
परिचय– कैथल, हरियाणा
अब वो डरने लगे हैं
न जाने किस बात से डरने लगे है
वो डरने लगे है
कहीं टूट न जाये
उनके बनाये
जंजालों की डोर
वो अब डरने लगे लगे हैं
कहीं हो न जाये
रात के बाद भोर
पर कौन रोक सकता है
भोर होने को
वो डरने लगे है
डरने वालों के डर से
कहीं वो सब मिल
डरना ही ना भूल जाएं
वो डरने लगे है
कहीं उनका खेल
खत्म ही ना हो जाये
ये सीधे लोगो को
बेवकूफ बनाने का
वो डरने लगे है कि
सीधे लोग अब
समझने लगे है कि
भगवान को बनाया है
इंसान ने
इंसान को नही बनाया
किसी भगवान ने
वो डर कर अब
फड़फड़ाने लगे है
उस दिए सा
जो बुझने से पहले
जोर से फड़फड़ाता है
खुद को बचाने को
वो डरने लगे है
उनको दिखने लगा
अब वर्चस्व का खात्मा
वो जान की आने वाला कल
किसी और का है
वो डरने लगे है
वो देख रहे है
सब को जागते हुए
अब उनकी नशीली दवा (अंधविस्वास, पाखण्डवाद)
का असर खत्म
होने लगा है
अब लगे है वो
खुद को बचाने
की कोशिशों में
लगे है उस लाल-नीले तूफान
को रोकने में
जो उन्हें उडा दूर
ले जायेगा
लाल-नीला तूफान
रुकने वाला नही है
अब विकराल रूप
ये लेने लगा है।