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संत गाडगे बहुजन परंपरा के नायक | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

राजेश कुमार बौद्ध

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय- संपादक, प्रबुद्ध वैलफेयर सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश


 

हाराष्ट्र द्विज और दलित- बहुजन परंपरा के बीच संघर्ष का केंद्र रहा है। इस बारे में दुनिया के प्रमुख समाजशास्त्रियों गेल ऑम्वेट, एलिनोर जेलियट और रोजालिंड ओहैनलॉन ने शोध किया है। गेल ऑम्वेट की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी ही इसी विषय पर है। महाराष्ट्र में आधुनिक द्विज परंपरा के जनक बाल गंगाधर तिलक हैं, तो दलित- बहुजन परंपरा के जनक ज्योतिबा राव फुले हैं। द्विज परंपरा के महाराष्ट्र में वीर सावरकर, नाथूराम गोडसे और हेडगेवार जैसे लोग आगे बढ़ाते हैं, तो दलित- बहुजन परंपरा को छत्रपति शाहूजी महाराज और बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर आगे बढ़ाते हैं।

 

महाराष्ट्र के दलित- बहुजन परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी बाबा गाडगे हैं। गाडगे बाबा का जन्म 23 फरवरी, 1876 ई. को महाराष्ट्र के अमरावती जिले की तहसील अंजन गांव सुरजी के शेगांव नामक गांव में, कहीं सछूत और कहीं अछूत समझी जाने वाली धोबी जाति के एक गरीब परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम सखूबाई और पिता का नाम झिंगराजी था। 

 

हालांकि महाराष्ट्र में ज्योतिबा राव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890) और सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831 – 10 मार्च, 1897) पहले से ही बहुजन समाज के लड़के तथा लड़कियों के लिए स्कूल खोल चुके थे और जाति के जहर के खिलाफ संघर्ष भी शुरू कर दिया था, इसके बावजूद महाराष्ट्र के बड़े हिस्से में मनुस्मृति का आदेश लागू हो रहा था और अतिशूद्रों- शूद्रों (दलित- बहुजनों) के बड़े हिस्से के लिए शिक्षा का द्वार बंद था।

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लेकिन शिक्षा के महत्त्व को फुले दंपति, शाहू जी महाराज और डॉ. अम्बेडकर की तरह वे भी समझते थे। उनका कहना था कि– यदि खाने की थाली बेचनी पड़े तो भी उसे बेचकर शिक्षा ग्रहण करो। हाथ पर रोटी रखकर खाना खा सकते हो पर विद्या के बिना जीवन अधूरा है। वे अपने प्रवचनों में शिक्षा पर उपदेश देते समय डॉ. अम्बेडकर को आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते थे कि ‘देखा बाबा साहब अम्बेडकर अपने प्रयासों से कितना पढ़े।

 

शिक्षा कोई एक ही वर्ग की ठेकेदारी नहीं है। एक गरीब का बच्चा भी अच्छी शिक्षा लेकर ढेर सारी डिग्रियां हासिल कर सकता है।’ बाबा गाडगे ने समाज में शिक्षा का प्रकाश फैलाने के लिए कई शिक्षण संस्थाओं संचालित किया बाद में सरकार ने इन संस्थाओं के रख-रखाव के लिए एक ट्रस्ट बनाया।

 

बाबा गाडगे का पूरा नाम देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाड़ोकर था। घर में उनके माता-पिता उन्हें प्यार से ‘डेबू जी’ कहते थे। बचपन में उनके पिता की मृत्यु हो गई। उन्हें बचपन का बड़ा हिस्सा अपने मामा के घर गुजरना पड़ा। धोबी समाज और अन्य दलित -बहुजनों की अपमानजनक हालात, अशिक्षा और गरीबी ने उन्हें इतना बेचैन किया कि वे घर- परिवार छोड़कर समाज की सेवा के लिए निकल पड़े।

 

बुद्ध की तरह उन्होंने सभी साधनों का त्याग कर दिया। वे अपने साथ सिर्फ मिट्टी के मटके जैसा एक पात्र और झाड़ू रखते थे। इसी पात्र में वे खाना भी खाते और पानी भी पीते थे। महाराष्ट्र में मटके के टुकड़े को गाडगा कहते हैं। इसी कारण कुछ लोग उन्हें गाडगे महाराज तो कुछ लोग गाडगे बाबा कहने लगे और बाद में वे संत गाडगे के नाम से प्रसिद्ध हो गये। जहां भी वे जाते सबसे पहले अपनी झाड़ू से स्थान की सफाई शुरू कर देते।

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वे कहते थे कि– सुगंध देने वाले फूलों को पात्र में रखकर भगवान की पत्थर की मूर्ति पर अर्पित करने के बजाय अपने चारों ओर बसे हुए लोगों की सेवा के लिए अपना खून खपाओ। भूखे लोगों को रोटी खिलाई, तो ही तुम्हारा जन्म सार्थक होगा। पूजा के उन फूलों से तो मेरा झाड़ू ही श्रेष्ठ है। वे संतों के वचन सुनाया करते थे। विशेष रूप से कबीर, रविदास संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर आदि के काव्यांश जनता को सुनाते थे। हिंसाबंदी, शराबबंदी, अस्पृश्यता निवारण, पशुबलि प्रथा निषेध आदि उनके कीर्तन के विषय हुआ करते थे।

 

उन्होंने सामाजिक कार्य और जनसेवा को ही अपना धर्म बना लिया था। वे व्यर्थ के कर्मकांडों, मूर्ति पूजा व खोखली परम्पराओं से दूर रहे। जाति प्रथा और अस्पृश्यता को गाडगे बाबा सबसे घृणित और अधर्म कहते थे। उनका मानना था कि ऐसी धारणाएं ब्राह्मणवादियों ने अपने स्वार्थ के लिए बनाई।

 

एक बार कहीं सामूहिक भोज का आयोजन हुआ। भोजन खाने के लिये पंगत में महार जाति के लोग भी बैठ गए। उन्हें देखकर सवर्णों ने चिल्लाना शुरू कर दिया। उसी पंगत में गाडगे जी भी बैठे थे। उन्हें बहुत बुरा लगा। वे तुरंत पंगत से यह कहते हुए उठ गए कि अगर इन लोगों को आप अपने साथ भोजन नहीं खिला सकते तो मैं आपके साथ भोजन करने को तैयार नही हूँ।

 

बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर परिनिर्वाण (6 दिसंबर, 1956) के 14 दिन बाद 20 दिसम्बर, 1956 को गाडगे बाबा ने अंतिम सांस ली। उनके परिनिर्वाण पर पूरे महाराष्ट्र और अन्यत्र भी दलित-बहुजनों के बीच शोक की लहर दौड़ गई थी। दलित-बहुजन समाज ने दिसंबर महीने में कुछ ही दिनों के भीतर अपने दो रत्न खो दिए थे।

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1 मई, 1983 ई. को महाराष्ट्र सरकार ने ‘संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय,’ की स्थापना की। उनकी 42वीं पुण्यतिथि के अवसर पर 20 दिसम्बर, 1998 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया। सन् 2001 में महाराष्ट्र सरकार ने अपनी स्मृति में संत गाडगे बाबा ग्राम स्वच्छता अभियान शुरू किया।

 

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