संविधान की पीड़ा | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन
©तिलक तनौदी ‘स्वच्छंद’
मैं भारत का संविधान,
अधिकार तुम्हें दे रखा हूं।
अपनी शासक चुनने का,
यह काम तुम्हें दे रखा हूं।
सम्मान के साथ जीने का,
अधिपत्य तुम्हें दे रखा हूं।
पर भी उँगली उठती है मुझ पर,
तब फिर मैं रो पड़ता हूँ॥१
मैं दुनिया का सबसे बड़ा,
लोकतन्त्र तुम्हें दे रखा हूँ।
सैकड़ों बोली भाषा वाली,
एक देश तुम्हें दे रखा हूँ।
अभिव्यक्ति की आजादी,
हर हाल तुम्हें दे रखा हूँ।
पर भी उँगली उठती है मुझ पर
तब फिर मैं रो पड़ता हूँ॥२
बाईस भाग बारह अनुसूची,
समावेश मैं करता हूँ।
न्याय तुम्हें देने खातिर,
सैकड़ो अनुच्छेद से लड़ता हूँ।
मान शान रक्षा करने,
हर पल मैं चलते रहता हूं।
पर भी उंगली उठता है मुझ पर
तब फिर मैं रो पड़ता हूं॥३
सैकड़ों अधिकारों के ऊपर,
मौलिक अधिकार दे रखा हूँ
अनुच्छेद बारह से पैंतीस,
पर समाहित कर रखा हूँ।
“हम भारत के लोग” बोल,
समता चरितार्थ मैं करता हूं।
पर भी उंगली उठती है मुझ पर,
तब फिर मैं रो पड़ता हूं॥४