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बेटी के लिये नफरत क्यों | Newsforum

©डॉ. सपना दलवी, कर्नाटक

परिचय :- शिक्षा- एमए, एमफिल, अनुवाद डिप्लोमा, पीएचडी, रुचि- कविता, कहानी, नाटक, स्त्री विमर्श लेखन, उपलब्धियां: हिन्दी व मराठी भाषा में देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेख का प्रकाशन.


 

कहानी

 

आज की शाम कुछ अजीब सी थी। एक ख़ामोशी एक सन्नाटा छा गया था। रात की वह ख़ामोशी ना तो मुझे सुकून दे रहीं थीं ना ही चैन। रोज़ की तरह आज भी मैं चांद को निहारते बालकनी में खड़ी थी। रोज़ चांद को निहारते उसकी शीतलता में डूब जाना, यह तो मेरी रोज़ की दिनचर्या थी।

 

पर आज चांद धुंधला सा दिखाई दे रहा था। रोज़ की जैसी शीतलता आज उसमें कहीं भी नजर नहीं आ रही थी। मन बेचैन हो उठा, चंद्रमा की लालिमा पता नहीं आज कहा लुप्त हो गई थी। तभी अचानक एक मीठी सी आवाज़ कानों पर पड़ी, “मां”।

 

एकदम से मेरा ध्यान चांद पर से हट गया; और जैसे ही मैंने सामने नजर डाली, एक छोटी सी बच्ची खड़ी थी। जो अपनी प्यारी आवाज़ में मुझे, “मां” कह कर बुला रही थी। उसके चेहरे पर एक अजीब सी चमक, एक अजीब सी कशिश थी। तभी शायद आज मुझे चांद धुंधला सा दिखाई दे रहा था; मानो चंद्रमा की लालिमा उस बच्ची के चेहरे पर पूरी तरह से छा गई हो। कुछ पल के लिए मैं भी उसके चेहरे की चमक में पूरी तरह खो गई थी। जिससे मेरे दिनभर की थकान दूर हो गई।

 

हर रात यूं मिलने का सिलसिला शुरू हुआ था। उसकी मीठी आवाज़ में “मां” शब्द सुनना मेरे लिए बहुत ही प्रसन्नतादायक था। सारी दुनिया एक तरफ़ और उसकी मधुर आवाज से निकला शब्द “मां” सुनने की ख़ुशी एक तरफ़….।

 

कई रातें बीत गईं, पर एक रात ऐसी आई, जिसमें मेरी सारी खुशियां उस घोर अंधेरे में लुप्त सी हो गई। उस दिन उसकी आवाज़ में वो मिठास नहीं थी, जो रोज़ हुआ करती थीं। आज उस मासूम की आवाज़ में एक भारी पन था, कुछ और भी बोलने की तड़प झलक रही थी। मानो वह अपना आक्रोश व्यक्त करना चाहती थी। अपने मन की भड़ास निकालना चाहती हो।

 

उसकी विद्रोह से भरी नज़र मेरी तरफ़ ऐसे देख रही थी, मानो मैं कोई अपराधी हूं, और आज अपनी अदालत में वो मेरा फैसला सुना देगी। वह मुझसे सवाल पर सवाल कर रही थी और मैं निरुत्तर होकर, अपराधी की भांति कटघरे में खड़ी थी। जब तक मैं कुछ समझ पाती, वह कदम दर कदम मुझसे दूर हो रही थी। पर उसकी भारी आवाज़ मुझ पर सवालों की बिजलियां गिरा रहीं थीं। उसका एक एक सवाल मुझे पूरी तरह झकझोर रहा था, मेरा पूरा शरीर पसीने से भीग गया था। उसका हर सवाल कांटे की तरह मेरे कलेजे को चीर रहा था।

 

फ़िर भी उसके सवालों का सिलसिला जारी रहा…

 

मां मेरी क्या गलती थी? जो मुझे पैदा होने से पहले ही मार दिया गया?

 

मां ऐसी क्या मजबूरी थी तुम्हारी जो तुमने मुझे बचाया नहीं?

 

मां क्या तुम्हें मुझसे प्यार नहीं था? जब तुम मेरी रक्षा कर रही थी तो फ़िर उन हत्यारों ने मुझे कैसे मारा?

 

मां कहीं तुमने ही तो नहीं कहा मुझे मारने को, मेरे अस्तित्व को मिटाने को..?

 

उस मासूम के सवालों का मेरे पास कोई भी जवाब नहीं था। आज भी मैं उतनी ही लाचार, बेबस अपने आपको महसूस कर रही थी।

 

पर उस मासूम ने दिलासा देते हुए कहा, मां अगर स्त्री होकर इतनी पीड़ा, इतनी तकलीफ़ सहनी पड़े तो, अच्छा हुआ तुमने मुझे कोख में ही मरने दिया। ना तो मैं किसी की बेटी बनना चाहती हूं, ना किसी की बहू, ना किसी की पत्नी, ना किसी की “मां”….।

 

मां मैं जा रही हूं, उस दुनिया में जहां मुझे कोई नहीं मारेगा, ना कोई ताने देगा और ना ही मैं किसी पर बोझ बनूंगी…।

 

इतना कहकर वह हल्की मुस्कान लिए, रात की उस काली छाया में कहीं ओझल सी हो गई…। उसकी मधुर आवाज में निकला वो शब्द “मां”….. आज भी मेरी कानों में गूंज रहा है….। उसके सवाल जिसका कोई भी जवाब मेरे पास नहीं हैं।

 

पर उसकी आवाज़ में मैं “मां” शब्द बार-बार सुनना चाहती हूं…..मां, मां, मां…..।


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