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अपनों के साथ ही | ऑनलाइन बुलेटिन

©गायकवाड विलास

परिचय- लातूर, महाराष्ट्र


 

जब देस पराया छोड़ कर चले हम वहां से,

तब हर तरफ छाया जैसे खुशियों का मौसम।

उसी पल अपनों की यादें दिल में मचलने लगी,

और बेचैनी से बढ़ने लगे थे हमारे कदम ।

 

वतन की मिट्टी की सौंधी खुशबू आने लगी याद,

और चहकती हुई गलियां नैनों में हंसने लगी।

गुज़र गए कितने साल हम दूर थे अपनों से,

आज मिटेगी दुरियां और खुशियों की बरसात होगी।

 

अपनों के बिना सब था वहां पर सुना सुना,

सजती महफिलों में भी लगता था जैसे कोई बेगाना।

सब अंजाने लोग और अंजान था वो परदेस,

ख्वाब अपनों के सजाने के लिए छोड़ गए थे हम अपना देस।

 

एक एक दिन वहां पर गुजरा जैसे कोई हो साल,

अपनों के बिना जिंदगी हुई थी वहां पर बेहाल।

जैसा भी हो अपना देस,जैसे भी हो अपने हालात,

अपना देस ही लगता है हमें यहां हर पल खुशहाल।

 

यादें जब आती थी अपनों की वहां पर तो,

बेचैनी से ढूंढती थी अपनों को हमारी ये गमगीन नज़र।

शहर-शहर,गलियां गलियां भी थी अंजानी वहां पर,

ऐसे में जिंदगी ही बनी थी जैसे कोई उजड़ा हुआ मंज़र।

 

जब देस पराया छोड़ कर चले हम वहां से,

तब हर तरफ छाया जैसे खुशियों का मौसम।

अपने तो अपने है अपनों के बिना नहीं है ये जिंदगी,

जैसे ही हो हालात अपनों के साथ ही हंसती है ये जिंदगी।

 

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