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एक नजर | ऑनलाइन बुलेटिन

©जलेश्वरी गेंदले

परिचय– शिक्षिका, पथरिया, मुंगेली, छत्तीसगढ़


 

मैं महिला हूं

इसलिए दुनिया मुझ पर अपनी सोच थोपेगी

कैसे व्यवहार करूं

कैसे कपड़े पहनूं

किससे मिलूं

कहां जाऊं

मुझे अपने आप से यही कहना है

कि अपने खुद के ज्ञान के प्रकाश में अपनी पसंद ना पसंद तय करूं

एक नज़र

मां ने रोक लगाई उसे प्यार का नाम दे दिया

पिता ने बंदिशे लगाए उसे संस्कारों का नाम दे दिया

सास ने कहा अपने इच्छाओं को मार दो

उसे परंपराओं का नाम दे दिया

ससुर ने घर को कैद खाना बना दिया

उसे अनुशासन का नाम दे दिया

पति ने थोप दिए अपने सपने अपनी इच्छाये

उसे वफा का नाम दे दिया

ठगी सी खड़ी मैं जिंदगी की राहों पर

और मैंने उसे किस्मत का नाम दे दिया

 

एक नजर

 

आया समय

अब आया मेरी बारी

युग निर्माण मुझे करना है

आजादी की खुदी नींव में

मुझे प्रगति पत्थर भरना है

अपने अंदर भरी अंधविश्वास की जंजीर को तोड़ना है

विज्ञान और संविधान से नाता जोड़ना है

कमजोर नहीं हूं मैं

जननी हूं संपूर्ण जगत की गौरव हूं

अपनी संस्कृति की

आहट हूं स्वर्णिम आगत की

मुझे नया इतिहास

बनाना है

अपनी नई सोच

के साथ अपनी सामाजिक विचार में परिवर्तन कर

नई भविष्य को गढ़ना है

मै उषा हूं

ऊर्जा हूं

प्रकृति हूं

क्योंकि मैं तो आधी दुनिया हूं

और पूरी स्त्री हूं

एक नज़र

कोशिश करूंगी मैं

आगे बढूंगी

सोचूंगी तर्क करूंगी

छोडूंगी अंधविश्वास

क्या कहती है विज्ञान की परिभाषा

जब पानी न गिरे लोग प्यासे मरे

खेत खलियान तरसे पानी को

क्यों नहीं होता कोई चमत्कार

प्रकृति ही है जीवन आधार

मै जान लूं एक बार

कोशिश करूंगी

आगे बढूंगी

सोचूंगी तर्क करूंगी

छोडूंगी अंधविश्वास

जब धूप ,वर्षा ,जल ,अग्नि न देखे जात पात

नहीं देखें नर नारी

नहीं देखे छोटे बड़े

नहीं करे भेदभाव

सब जीव है समान

किसने बनाया नारी को कमजोर???

आज मैं सोच रही हूं

कल तुम सोचो गी

करोगी तर्क वितर्क विचार

तभी तो जान पाओगी अपना हक अधिकार

एक नजर

मुझे जाने पिता के नाम से

जाने लोग मुझे पति के नाम से

बुलाए बेटा के नाम से

जाने लोग मुझे मायका के नाम से

मेरा क्या है? क्या है मेरा??

मन में आता है बार-बार यह ख्याल

एक नजर

जहां मुझे बंदिशों का कतार मिला

उसे मैंने मान लिया जीवन का आधार

जहां मुझे सर उठाने का मौका मिला

मान सम्मान सम्मान मिला

मैंने उसे नजरअंदाज किया

कोशिश करूंगी

आगे बढूंगी

सोचूंगी तर्क करूंगी

छोडूंगी अंधविश्वास

साथ न दे कोई ग़म नहीं

जीत मिले न सही

भूल जाऊं बाबासाहब के रहमों करम को

वो हम नहीं

एक नज़र

दिन की रोशनी ख्वाबों को बनाने में गुजर गई

रात की नींद बच्चे को सुलाने में गुजर गई

जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं

सारी उम्र उस घर को सजाने में गुजर गई

मेरा जीवन क्या समाज के कुछ काम आई ???


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