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और ये ज़माना कहता है…

©गायकवाड विलास

परिचय- मिलिंद महाविद्यालय लातूर, महाराष्ट्र


 

रोटी ने किया मजबूर और ग़रीबी ने छीन लिया बचपन,

और ये ज़माना कहता है की, ग़रीबी में संस्कारों की कमी है।

 

हाथों में किताबें लेने की उम्र में,हम रोटी के लिए तरस रहे थे,

ऐसे हालातों में हम औरों के किताबें भी कबाड़ख़ाने में बेच रहे थे।

 

ये बुराईयां मां ओ की कोख से ही पैदा हुई नहीं है,

ये पेट की आग ही अच्छाई को भी बुराईयों में बदल देती है।

 

गरीबों की बस्तियों को ही ये ज़माना बुरी नजरों से देखता है,

मगर देखो कभी कीचड़ की दल-दल में ही वो कमल का फूल खिलता है।

 

जिन्हें हर दिन मिलती नहीं रोटी,वो किताबें क्या खरीद लायेंगे,

जिन्हें मिलता नहीं हर दिन रोजगार,वो क्या पाठशाला की ओर जायेंगे?

 

रोटी ने किया मजबूर और ग़रीबी ने छीन लिया बचपन,

और ये ज़माना कहता है बुराईयों से ही भरा है ये हमारा आंगन।

 

 

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