विधवा का जीवन …
विधवा का जीवन ...
©डॉ. संतराम आर्य, वरिष्ठ साहित्यकार, नई दिल्ली
परिचय : जन्म 14 फरवरी, 1938, रोहतक।
जब मैं उस राह से गुजरा
उस राह के फूल मुस्कुराए
किसी ने काटों से जख्म खाया
मैंने तो फूलों से जख्म खाए
थी फूल सी कली मगर थी मुर्झाई
न हाथों में चूड़ियां न बिंदी लगाई
नाजुक होठों पे पपड़ी थी सूखी
कल तर होठों पे थी लाली लगाई
गुलाब से चेहरे पर काजल बह गया
शादी का सेहरा तो सपना रह गया
उम्र किसी ने 18 से 20 की बताई
सताई तो जवानी ने ऐसे सताई
प्रकृति कोप बना नियति का ये दिन
उसकी जिंदगी हो गई छिन्न भिन्न
नोच लेंगे मांस झुंड भेड़ियों के यहाँ
घर की ना घाट की जाए कहां
बिलखती बिलखती बेहोश हो गई
रही न इस जग में कहीं और खो गई
होश आया उसने आखें खोली
फिर धीरे से कुछ यूं बोली
मैं चली जाती तो कितना अच्छा था
न अभी मेरी गोद में कोई बच्चा था
शादी कर लेता भगा कर ले आता
वो खुले आकाश तले भी सो जाता
फिर सिसकते सिसकते उसने बताया,
खुद ही अपने जख्मों पर मरहम लगाया,
वह तो भीख भी मांग कर खा लेता कहीं
मैंने भीख मांगी तो समझो इज्जत गई
जो सपने संजोए थे हुए ना पूरे
जहां के परीक्षण रह गए अधूरे
समझेगा कौन ये रूदन की भाषा
अब ना होगी पूरी कोई अभिलाषा
“आर्य” ने पढ़ा था वो मासूम सा चेहरा
जवानी में विधवा का जख्म था गहरा
दर्द दु:खों के घने बादल मंडराए
जालिम जमाने को कैसे समझाएं
है कोई ऐसा जो हाथ बंटाए
हंसने हंसाने की राह दिखाए
किसी ने कांटों से जख्म खाया
मैंने तो फूलों से जख्म खाए …