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धम्मपद गाथा- दूसरों के दोषों का लेखा-जोखा मत रखो. दूसरों की सिर्फ निंदा, आलोचना, प्रतिक्रिया में रस मत लो. यह पतन का मार्ग है | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

डॉ. एम एल परिहार

©डॉ. एम एल परिहार

परिचय- जयपुर, राजस्थान.


 

दूसरों के दोषों का लेखा-जोखा मत रखो. दूसरों की सिर्फ निंदा, आलोचना, प्रतिक्रिया में रस मत लो. यह पतन का मार्ग है. बल्कि अपने ही न किये हुए तथा किये हुए कर्मों को देखो.

 

न परेसं विलोमानि, न परेसं कताकतं ।

 अत्तनो व अवेक्खेय्य, कतानि अकतानि च।।

 

दूसरों की विरोध या विपरीत बातों की ओर ध्यान मत दो, दूसरों के दोष पर ध्यान मत दो और न ही दूसरों के किए, न किए कर्मों को देखना चाहिए बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि हमने क्या-क्या किया है।

 

कुछ लोगों की नजर हमेशा बाहर की ओर रहती है, दूसरों के काम-काज पर ज्यादा ध्यान रखते हैं। ऐसे नकारात्मक विचार और दिशा वाले लोग हमेशा दूसरों की आलोचना, निंदा, विरोध और प्रतिक्रिया में ही लगे रहते हैं। किसने भला किया, किसने बुरा किया, किसने नहीं किया, किसने अच्छा काम नहीं किया। इस तरह उनके मन में दूसरों का कामकाज हावी रहता है, सिर्फ दूसरों के दोषों का लेखा-जोखा रखते हैं।

 

यही नहीं दूसरे के दोष, गलती को बढ़ा-चढ़ाकर बताने में भी रस आता है। उन्हें दूसरे सभी गलत, झूठे, निठल्ले नजर आते हैं। उन्हें स्वयं को छोड़कर सारे जगत की चिंता रहती है कि कौन क्या कर रहा है और मौका मिलते ही उनको लोगों को गिनाऊं।

 

जो व्यक्ति दूसरों के कार्य या दोष पर ध्यान देता है उसे खुद के दोष नजर नहीं आते हैं या छोटे करके देखता है। यदि कोई भूल हो जाए तो उसकी मजबूरी के सौ कारण गिना देते हैं। ऐसे लोग जब तक दूसरों की पंचायती नहीं करते हैं इनका खाना हजम नहीं होता है, चैन नहीं मिलता।

 

भगवान बुद्ध कहते है, दूसरों के दोष पर ध्यान मत दो। ऐसे व्यक्ति को कुछ हासिल नहीं होता है। दूसरों का विरोध, आलोचना, प्रतिक्रिया करने वाले की सुख शांति खो जाती है उसका नजरिया नकारात्मक हो जाता है, पतन की ओर गिर जाता है।

 

दूसरे के कृत-अकृत को किए हुए तथा न किए हुए को देखना भी ध्यान साधना में बाधक है। चित्त का बहिर्मुखी स्वभाव दुखदायी है, हमें अंतर्मुखी होना चाहिए।

 

तथागत कहते हैं, दूसरों के कृत्य-अकृत्य को मत देखो, केवल अपने कृत-अकृत्य को देखो, अवलोकन करो। केवल दृष्टा भाव से देखो, कर्ता भाव से नहीं। जैसा है वैसा ही देखो। अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं, कोई निर्णय नहीं देना है।

 

भगवान आगे कहते है- मनुष्य को चाहिए कि वह यह देखे कि उसने क्या किया और क्या नहीं किया। हमारे मन में जमे हुए विकारों के मैल को कितना साफ किया और कितना बाकी है, स्वयं के चित्त को शुद्ध कर शांति के मार्ग पर कहां तक पहुंचे और कितना बाकी है।

 

यदि व्यक्ति स्वयं सुखी होगा तो इसका असर परिवार और पूरे समाज पर पड़ेगा. अत: व्यक्ति स्वयं के कार्यों को देखे और अधिकतर या सभी ऐसा करे तो संपूर्ण मानव समाज का कल्याण हो सकता है।

 

 सबका मंगल हो सभी प्राणी सुखी हो

 

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