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धम्मपद गाथा- न चंदन की न चमेली की, न जूही की न बेला की, शील (सदाचार) की सुगंध सर्वोत्तम है; सज्जनों की सुगंध हवा के विपरीत दिशा में भी बहती है | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

डॉ. एम एल परिहार

©डॉ एम एल परिहार

परिचय- जयपुर, राजस्थान.


 

 न पुप्फगन्धो पटिवातमेति, न चन्दनं तगरमल्लिका वा।

सतञ्च गन्धो पटिवातमेति, सब्बा दिसा सप्पुरिसो पवाति।

 

      फूलों की सुगंध वायु की विपरीत दिशाओं में नहीं जाती। न चंदन की, न तगर की, न बेला की, मल्लिका की, न चमेली की। लेकिन सज्जनों की सुगंध वायु की विपरीत दिशा में भी जाती है। प्रज्ञावान, सत्पुरूष, संतपुरूष अपनी सुगंध सभी दिशाओं में बहाते हैं। इस संसार में यही एक सुगंध है जो प्रकृति के साधारण नियमों से पार विपरीत दिशा में चली जाती है।

 

संत, सज्जन, जाग्रत, प्रज्ञावान व्यक्ति के सदाचार की सुगंध की कोई सीमाएं नहीं होती। ऐसे शीलवान लोग अपने शील की सुगंध से स्वयं महकते है और संसार रूपी गुलशन को भी महकाते हैं। सिर्फ सब दिशाओं में ही नहीं बल्कि सारे जगत में हर काल में भी फैलती है। संसार में वे शरीर के रूप में नहीं रहने के बाद भी हर युग में फैलती है।

 

सत्यपुरूष सिर्फ एक दिशा में ही जाते हैं। प्रज्ञावान, शीलवान, सज्जन, सदाचारी लोग अपना सही मार्ग चुनकर एक ही दिशा में चलते हैं। धम्म के निर्वाण पथ पर चलते है और जब मंजिल मिल जाती है तो सब दिशाओं में उनके शील की सुगंध फैलती है, स्वत: ही फैलती है। वे सिर्फ एक दिशा की ओर चलते हैं और एक को पाने के लिए ही प्रयास करते हैं। कहते हैं, जिसने एक को पा लिया उसने सब पा लिया।

 

सामान्यजन संसार में हर दिशा की ओर भागता है, लेकिन आखिर हासिल कुछ नहीं होता, असार ही मिलता है। मनुष्य अपने शरीर को बाहरी रूप से सुगंधित करने के लिए तरह-तरह के लेप करता, चीजों का प्रयोग करता है, सजाता है, इत्र लगाता है। लाख कोशिशों के बावजूद व्यक्ति के मन,वाणी और शरीर के कर्म उसकी असलियत को उजागर कर देते हैं।

 

तथागत कहते है, मनुष्य अपने अंदर प्रज्ञा का लेप करे, और सद्गुणों की सुगंधिया लगाए तो ऐसे सज्जनों की सुगंध हवा के विपरीत भी फैलेगी। फूलों की सुगंध के फैलने की सीमाएं हैं ज्यादा दूरी तक भी नहीं फैलती है परन्तु सदाचार, सद्गुणों की सुगध की कोई सीमा नहीं होती है, संसार की हर दिशा और हर काल में फैलती है, वह अनन्त समय तक प्राणी जगत को महकाती है।

 

धम्मपद गाथा- शीलवान, संतजनों की सब प्रशंसा करते हैं

 

चन्दनं तगरं वापि उप्पल अथ वस्सिकी।

एतेसं गन्धजातानं सीलगन्धो अनुत्तरो ।।

 

चंदन हो या तगर, कमल हो या जूही, कोश इन सभी चीजों की सुगंधों से शील (सदाचार) की सुगंध सर्वोत्तम है, सबसे बढ़कर है।

 

वनस्पति जगत सुंदरता के साथ भांति-भांति की मनमोहक सुगंधियों का भी भंडार है। सभी को यह सुगंधियां आकर्षित करती है सभी कुछ क्षण के लिए अपने तन-मन में उतार कर आनंदित होना चाहते हैं लेकिन सच यह है कि ये सुगंधियां भौतिक हैं, इनका उपयोग सिफ हमारे शरीर तक सीमित है।

 

ये मन को कुछ हद तक प्रसन्न कर सकती हैं, कुछ समय तक आनंद का अनुभव करा सकती हैं। इसके विपरीत शील की सुगंध सर्वोत्तम है उसका कोई मुकाबला नहीं है। सदाचारी, शीलवान, सज्जन लोगों की सभी जगह प्रशंसा होती है, हर कोई उनसे मिलने, सुनने और उनके बताए मार्ग पर चलने को आतुर रहते हैं। उनका सानिध्य दूसरों को शांति प्रदान करता है।

 

शील (morality) क्या है

 

शील नैतिक अभ्यास है जिसमें मन, वाणी और शरीर से कुशल कर्मों को करना, संचय करना और अकुशल कर्मों का नहीं करना। शील भगवान बुद्ध की शिक्षाओं की शुरूआत का पहला कदम है। साधारण अर्थ में इसे व्यक्ति के स्वभाव, चरित्र, शिष्टता, विनम्रता, आचरण, मर्यादा, चाल-चलन, सदाचार उत्तर आचार से होता है।

 

शील का अर्थ है नैतिकता, सद्गुण। चूंकि शीलवाद व्यक्ति मन, वाणी और शरीर से कुशल कर्मों में गंभीर होता है। इसलिए वह दुखों से अधिक मुक्त होता है। बुद्ध की शिक्षाओं में गृहस्थों के लिए पांच और भिक्षु-भिक्षुणी के लिए दस शीलों का विवरण है।

 

शील के बिना व्यक्ति धम्म के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकता और समाधि को प्राप्त नहीं हो सकता। समाधि से ही व्यक्ति में प्रज्ञा विकसित होती है। इसलिए शील तो धम्म का आधार है। शील की सुगंध ही सर्वोत्तम है।

 

लेकिन बुद्ध वचनों में शील का अर्थ चरित्र नहीं है। समाज, संस्कृति, संस्कार, मान्यता, परम्परा, विचार, नियम आदि से चरित्र बनता है। मानो थोपे गए हो जबकि शील व्यक्ति के अंदर से पैदा होते हैं, ध्यान – साधना से पैदा होते हैं।

 

 

      सबका मंगल हो… सभी प्राणी सुखी हो

 

 

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