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चलो बुद्ध की ओर | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

राजेश कुमार बौद्ध

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय- संपादक, प्रबुद्ध वैलफेयर सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश


नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

 

बुद्धवाणी

 

गृहस्थ के चार लौकिक सुख

 

तथागत बुद्ध के अधिकारियों की चार परिषद होती थी, जिसे “चतस्सन्नं परिसानं” कहते थे।

 

  • (1) भिक्खु संघ
  • (2) भिक्खुणी संघ
  • (3) उपासक संघ
  • (4)उपासिका संघ

भगवान चारों को समय समय पर धम्म उपदेश देते थे।धम्म साधना का अभ्यास कराते थे।मार्ग तो एक ही था “आर्य अष्टाङ्गिक” मार्ग।साघना भी सभी के लिए एक ही थी- “चतारो सतिपट्ठान”।दु:ख मुक्ति के लिए और निर्वाण प्राप्ति के लिए एक ही मार्ग था- “एकायनो मग्गो” गृहस्थों के चार सुखों का उपदेश अनाथपिंडिक को जेतवन विहार, श्रावस्तीमें देते हुए तथागत ने कहा…….

 

1- गृहस्थ धन-

 

उपार्जन करे परंतु अपने परिश्रम से, ईमानदारीपूर्वक,न्याय-नीति पूर्वक, धर्मपूर्वक, बिना किसी को धोखा दिये अगर धन उपार्जन में उसने कभी कोई श्रम नही किया अथवा जिसे उसने अनीतिपूर्ण ढंग से हासिल किया तो वह सम्पदा उसके सही सुख का कारण नही बन सकती ऐसा व्यक्ति गृहस्थ के इस प्रथम सुख से वंचित रह जाता है।

 

2- दूसरा लौकीय सुख है

 

अपनी मेहनत और ईमानदारी से कमाई हुई सम्पदा का उचित उपभोग और संविभाजन यानी दान द्वारा सदुपयोग यदि कोई गृहस्थ अपनी कमाई हुई सम्पदा का लोभ और कंजूसीवश कोई उपयोग नही करता,न अपने लिये,न औरो के लिये तो ऐसा व्यक्ति सद्गृहस्थ के दूसरे सुख से वंचित रह जाता है।

 

यदि कोई गृहस्थ नासमझीवश अथवा असावधानीवश अपनी कमाई हुई सम्पदा किसी अन्य व्यक्ति के प्रभुत्व में दे देता है,और परिणामस्वरूप आवश्यकता पड़ने पर स्वयं अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये अथवा लोक कल्याणहित दान देने के लिये भी उसमे से कुछ नही प्राप्त कर सकता तो वह भी गृहस्थ जीवन के इस दूसरे सुख से वंचित रह जाता है।

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3- गृहस्थ का तीसरा लोकीय सुख है ऋण मुक्ति का सुख

 

यदि कोई गृहस्थ नासमझी से अथवा परिस्थितियों से मजबूर होकर ऋण ले लेता है और ऋण की अदायगी नही कर पाता तो गृहस्थ जीवन के तीसरे सुख से वंचित रह जाता है उऋण रहने का अपना सुख है ऋणमुक्त होकर ही कोई यह सुख भोग सकता है।

 

4- गृहस्थ का चौथा लोकीय सुख है- शील पालन बड़ा सुख है

 

शील पालन में कोई व्यक्ति नासमझी या असावधानी के कारण दुराचारी हो जाता है,और हिंसा,चोरी,व्यभिचार, झूठ या नशा सेवन में से किसी एक या एक से अधिक का सहारा लेकर अपना शील नष्ट कर लेता है तो वह शील पालन के इस अतुल सुख से वंचित रह जाता है।

 

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