खाक में न मिलाओ वतन को कोई…

©रामकेश एम यादव
आग कहीं पे लगाना मुनासिब नहीं,
होश अपना गंवाना मुनासिब नहीं।
दे के कुर्बानी किए चमन जो आजाद,
ऐसी बगिया जलाना मुनासिब नहीं।
तुमने जो भी किया आज देश है खफ़ा,
हक़ किसी का मिटाना मुनासिब नहीं।
सबकी आँखें छलकती हैं निर्वस्त्रों पे,
उन्हें जिन्दा जलाना मुनासिब नहीं।
कितने आंगन वहाँ पे हैं सूने पड़े,
अपनी संस्कृति कुचलना मुनासिब नहीं।
झाँकती हैं दीवारें बे – पर्दा वहाँ,
जिन्दा गलियाँ जलाना मुनासिब नहीं।
कहाँ तय था घरों में जलेंगे चराग़,
उन्हें छल से बुझाना मुनासिब नहीं।
कांप जाती है रुह ये उन्हें देखकर,
कतरा – कतरा रुलाना मुनासिब नहीं।
उनके जख्मों की बोली सुनो तो जरा,
क़त्ल अपनों का करना मुनासिब नहीं।
मौत की जद में कोई कहाँ तक रहे,
रोज आंसू पिलाना मुनासिब नहीं।
किस कदर कांपती है वो आबो -हवा,
उल्टी गंगा बहाना मुनासिब नहीं।
खाक में न मिलाओ वतन को कोई,
माँ का आँचल जलाना मुनासिब नहीं।

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