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दलित जागरण के नायक | ऑनलाइन बुलेटिन

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय-   गोरखपुर, उत्तर प्रदेश


 

भारत में सचमुच जिसका ज्ञान पर अधिकार है, वही सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप में सत्तावान भी हैं। हमें यह भी समझना होगा कि जिस समय आर्य मूलनिवासियों को अपमानित करने वाले साहित्य वेद की रचना कर रहे थे, उसी समय मूलनिवासी भी आर्यों के साथ अपने संधर्ष के साहित्य की रचना कर रहे थे। वह साहित्य आर्यों द्वारा नष्ट कर दिया गया; परन्तु उसकी छाया और उसके प्रभाव को आर्यों के साहित्य में हम पूरी तरह देख सकते हैं। इसी साहित्य में मौजूद मूलनिवासियों या शूद्रों की चिन्तन धारा और चारित्रिक विशेषताओं से हम अम्बेडकरवादी साहित्य की संस्कृति पर विचार कर सकते हैं।

 

सिद्धों के बाद के दलित संत भी किसी न किसी श्रम से जुड़े हैं, संत कबीर बुनकर हैं, तो संत रविदास जूता बनाकर जीविका चलाते हैं। चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में ये और इन सरीखे श्रमजीवी दलित संत कवि अपनी इसी संस्कृति के बल पर ब्राह्मणों और उनकी पलायनवादी, परजीवी और भोगैर्श्य परायण संस्कृति से टक्कर लेते हैं, यहाँ तक कि काशी के रामानंद जैसे धोर कर्मकाण्डी और अस्पृश्यतावादी ब्राह्मण भी उनसे प्रभावित होकर दलितों के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं।

 

अम्बेडकरवादी साहित्य के उद्भव के पूर्व ही हिन्दी साहित्य में दलितों की आवाज़ सुनाई देने लगी थी। मध्यकाल के संत कवियों द्धारा हिन्दी साहित्य में अलख जगाना शुरू कर दिया गया था। तब संत रविदास और कबीरदास ने वर्ण-व्यवस्था और जाति-पांति के विरूद्ध अपने उद्दगार व्यक्त किये थे। संत रविदास ने कहा: –

 

रविदास एक ही बूंद से असो जगत वित्थार ।

मूरखि है जो करत है, अबरन, वरन विचारि ॥

जात जात में जात है क्यों केरन के पात ।

‘ रविदास ‘ न मानुष, जड़ सके, जौ लों जात न जात ॥

 

संत कबीरदास ने कहा:-

 

तुम कत बाभन हम कत सूद

हम कत लो हूँ, तुम कत दूध ॥

जो बाभन तू बभनी जाया

अजान वाट है क्यों न आयो ॥

एकहि रक्त एक मल मूतर, एक चाम एक गुर्दा।

एक बूंद सो सब उत्पन्ना, को बाभन को सूदा ॥ आदि

 

अंगरेजी सत्ता भारत में स्थापित होने पर हिन्दी साहित्य में “हीरा डोम” और “स्वामी अछूतानन्द हरिहर” के गीतों, गज़लों में दलित चेतना को उतारा था। हीरा डोम ने ‘अछूत की शिकायत’ में भोजपूरी में सन् 1814 ई•में कहा था –

 

हमनी के राति दिन, दुखवा ओ रति बानी हमनी के सेहबे से मिनती सुनाइबि ।

हमनी के दुख भगषनउन देखतजा हमनी के कब ले कलेरूबा उठा इबि।

हमनी के कम्प्रना के निगिचेनद, जाइदेला पॉके में से भारि भारि पियतानी पानी।

पनही से पीटि पीटि हाथ जोड़ तोरि देखा, हमनी के एतना काहे के परेशानी।

 

स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ ने दलितों को भारत के मूलनिवासी सिध्द कर आदि हिन्दू मिशन चलाया। ‘ अछूत ‘अखबार निकाला, वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने वाली मनुस्मृति की निन्दा करते हुये कहा-

 

निसदिन ये मनुस्मृति हमको जला रही हैं।

ऊपर न उठने देती, नीचे गिरा रही हैं॥

ब्राह्मण व क्षत्रियों को सबका बनाया अफसर।

हमको पुराने उतरन पहनो बता रही है॥

 

दलित जातियों के समाज सुधारक महामानव ज्योतिबा फूले और बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर, स्वामी अछूतानन्द हरिहर इत्यादि ने दलितों में ‘ पढ़ो और संधर्ष करो ‘ की जो प्रेरणा पैदा की, उसके कारण दलित शिक्षा से जुड़ते गये। आजादी के बाद जो राष्ट्र बना, जो संविधान बना, उसने शिक्षा में छुआ-छूत मिटा कर निचली जातियों में शिक्षित, शिक्षक एवं लेखक भी पैदा हुए।

 

औपनिवेशिक काल में हीरा डोम, अछूतानन्द जैसे लेखक हिन्दी साहित्यिक परिदृश्य पर आने लगे, दलित समुदायों के लिए लेखन को प्रतिरोध के एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में विकसित करने की प्रेरणा भी दी। दलितों की अभिव्यक्ति को छापने के लिए प्रिंटिंग प्रेस बैठाये, स्कूल खुलवाये, हिन्दू छात्रावास आदि खुलवाये।

 

उत्तर प्रदेश के दलितों ने पहला अखबार निकाला; 1980 के बाद के दशक में उभरे दलित समुदाय में शिक्षा बढ़ी तो पढ़ने वालों की संख्या भी बढने लगी। फलतः दलितों के बढ़ रहे पाठक वर्ग के लिए ‘ अपना साहित्य ‘ की जरूरत भी महसूस हुई।

 

परिणामस्वरूप आज अनेक महत्वपूर्ण दलित लेखक, कवि, कथाकार, पत्रकार हिन्दी क्षेत्र के साहित्यिक परिदृश्य पर सक्रिय हैं, एक ओर ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय, डॉ श्योराज सिंह बैचैन, डॉ नवल वियोगी, डॉ तुलसी राम, डॉ सोहनपाल सुमनाक्षर, सूरज पाल चौहान, राजपाल सिंह राज, डॉ सुशीला टाकभौरे, डॉ काली चरण स्नेही, अवन्तिका प्रसाद मरगट, डॉ पुरुषोत्तम ‘सत्यप्रेमी, डॉ दयानंद ‘बटोही, डॉ कुसुम मेघवाल, डॉ नीरा परमार, डॉ माता प्रसाद, बुद्ध शरण हंस, डॉ अनीता भारती, रजनी तिलक, डॉ तारा परमार, पुष्पा विवेक, डॉ डी आर जाटव, एस एल सागर, गुरू प्रसाद मदन, आर बी त्रिशरण, कंवल भारती, डी सी दिनकर, के नाथ आदि जैसे लेखक मात्र अपने पाठकों के लिए न केवल साहित्य लिख रहे हैं, बल्कि सामाजिक चिंतन, दलित सौन्दर्यशास्त्र, दलित जागरण का साहित्य भी लिख रहे हैं।

 

साहित्य का सृजन करना एक अद्भुत काम है, यह कार्य हर कोई नहीं कर सकता है। प्रकृति प्रदत्त तेज और तेवर से ही कोई व्यक्ति लेख़क बनता है और साहित्य साधना करता है।

 


 

नोट :- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ‘online bulletin dot in’ इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

 

 

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