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मेरी संस्कृति मेरा अभिमान, तथागत बुद्ध जयंती अवसर पर महान संस्कृति को जाने व समझें | Newsforum

{विश्व को शांति, दया, करुणा, प्रज्ञा, शील व दुःख से मुक्ति का सम्यक सूत्र प्रदान करने वाले महान तर्कशील तथागत बुद्ध के जन्मदिन की समस्त जीव जगत को बधाई देता हूं एवं महान बुद्ध के धम्म को शत-शत नमन करते हुए अपनी महान संस्कृति के बखान को शब्दों में पिरोने कोशिश करता हूं।}

©विनोद कुमार कोशले, बिलासपुर, छत्तीसगढ़

परिचय : सामाजिक चिंतक व विश्लेषक, एट्रोसिटी एक्ट, सुप्रीम कोर्ट व हाइकोर्ट में आरक्षण मामले निर्णय के विश्लेषक, कोर मेंबर, सोशल जस्टिस एंड लीगल फाउंडेशन संगठन छत्तीसगढ़.


 

आज बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर हम अपने महान संस्कृति की बात करते हैं। हम आज तक हम अपने महान संस्कृति को समझ नहीं पाए हैं, जबकि दूसरे समुदाय अपनी संस्कृति को विकसित करने दिन-रात परिश्रम कर रहे हैं। हमें अपने महान संस्कृति को समझते हुए हमारी अगली पीढ़ी तक हस्तांतरण करने आज बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर हमें प्रण लेने होंगे।

 

वर्तमान परिस्थितयों को देखते हुए हमें अपनी संस्कृति व सभ्यता को विकसित करने, तेज गति से कार्य करने की जरूरत है। ताकि हमारे आने वाली पीढ़ियां अपनी महानतम संस्कृति व सभ्यता पर गर्व कर सके। हम क्यों उस संस्कृति व सभ्यता को ढोते रहें जो मानव-मानव में विभेद करते आ रहा है। आज कोरोना महामारी, प्रकृति आपदा के आगे धार्मिक स्थल बेबस नजर आ रहे हैं। यदि हम अपनी संस्कृति की बात करें तो हम पाते हैं कि हमारी संस्कृति कभी चमत्कारिक शक्ति का केंद्र नहीं रही है। हमारे असली महापुरुष तथागत बुद्ध से लेकर बाबा गुरु घासीदास, बाबा साहब अंबेडकर तक किसी भी महापुरुष ने ईश्वरीय शक्ति की बातें नहीं की। हमारे सभी मूलनिवासी संस्कृति के वाहकों ने वैज्ञानिकवाद व तर्कशील विचार को आगे बढ़ाया।

यदि हम तथागत बुद्ध की बात करें तो बुद्ध व उनका धम्म ईश्वरीय व चमत्कारिक नहीं था। बुद्ध ने अपने लिए व अपने धम्म के लिए किसी प्रकार का दावा नहीं किया। प्रत्येक धर्म संस्थापक ने अपने उपदेशों में ईश्वरी होने का दावा किया है। बुद्ध ने कभी भी अपने लिए अथवा अपने धम्म देशना के लिए ऐसा कोई दावा नहीं किया। उनका दावा इतना भर था कि वह भी मनुष्य में से एक है और लोगों के लिए उनका संदेश एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य को दिया गया संदेश है। उन्होंने कहा कि हर किसी को भी इस बात की स्वतंत्रता है कि वह इसके बारे में प्रश्न पूछे, परीक्षण करें और उस सत्य को प्राप्त करें जो इसमें है। किसी भी दूसरे धर्म के संस्थापक ने अपने धर्म को इस प्रकार परीक्षण की कसौटी पर कसने की खुली चुनौती नहीं दी। ऐसी महान बुद्ध की धम्म संस्कृति हमारी है, जो हमें प्रज्ञा, शील और करुणा प्रदान करती है। विश्व को शांति का संदेश देती है। तथागत ने दुःख से मुक्ति का सम्यक सूत्र दिया और कहा “हम जब किसी दु:ख को स्वार्थ अथवा आसक्ति से जोड़कर देखेंगे तो दु:ख से निर्माण का मार्ग नहीं मिलेगा, लेकिन दृष्टि के सम्यक होते ही आगे जाने का रास्ता खुलता चला जाएगा, तो सबसे पहले सम्यक संकल्प फिर सम्यक वाक, सम्यक कर्म, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम और सम्यक स्मृति से होकर सम्यक समाधि तक पहुंचेगा। इस सम्यक समाधि में ही दु:ख से निर्माण संभव है।

 

यदि हम महान अशोक की बात करें तो उन्होंने भी अहिंसा व सत्य का मार्ग अपनाकर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का संदेश दिया। महान अशोक का राज अखंड भारत रहा। सम्राट अशोक ने अपनी संस्कृति व सभ्यता को विकसित करने संपूर्ण एशिया के सभी महाद्वीपों में धम्म का प्रचार किया। सम्राट अशोक के कार्यकाल में 23 विश्व विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, जिसमें तक्षशिला विक्रमशिला, नालंदा कंधार आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे।

 

हमारे बहुजन जागृति के अग्रदूत मान्यवर कांशी राम साहब को एक पत्रकार ने पूछा कि यदि आप सत्ता प्राप्ति करते हैं तो आप कैसा शासन लाएंगे। साहब ने कहा “मैंने इस पर ज्यादा सोचा तो नहीं लेकिन मैं सम्राट अशोक का शासनकाल लाना चाहूंगा” यह बात मान्यवर कांशी राम साहब ने कही थी।

 

हमारी महान संस्कृति के वाहक महान संत कबीर धर्म की आडम्बरों को अपनी वाणी से प्रहार किया। अपने विचारों द्वारा जनमानस की आंखों पर धर्म तथा संप्रदाय के नाम पर पड़े पर्दे को खोलने का प्रयास किया। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया। उन्होंने जन्मना श्रेष्ठ सिद्धांत को नकारा तथा धार्मिक कुप्रथा जैसे मूर्ति पूजा का विरोध किया। ईश्वर; मंदिर, मस्जिद तथा गुरुद्वारे में नहीं होते हैं बल्कि मनुष्य के अंदर व्याप्त होते हैं माना। संत कबीर साहब ने मानव मानव समान कहा। उन्होंने अपनी वाणी में कहा”

 

“कबीरा कुआं एक है पानी भरे अनेक,

 मटकी में ही भेद है पानी सब में एक”

 

यही हमारे मूल संस्कृति है। संत कबीर ने हर एक मनुष्य को किसी एक संप्रदाय] धर्म आदि में ना पड़ने की सलाह दी। यह सारी चीजें मनुष्य को राह से भटकाने तथा बंटवारे की ओर ले जाती है। महान संत कबीर ने हमें इन सब के चक्कर से दूर रहने सलाह दिया। महान कबीर की संस्कृति ही हमारी संस्कृति है। हमें हमारी इस महान संस्कृति को आगे ले जाना है।

 

मार्क्स से काफी पहले महान संत रैदास ने समतामूलक समाज का सपना देखा था। रैदास की संस्कृति ऊंच-नीच की अवधारणा से परे रहा है। वे कहते है कि कोई ऊंच या नीच अपने मानवीय कर्मों से होता है जन्म के आधार पर नहीं। वे लिखते हैं

 

“रैदास जन्म के कारण होत न कोई नीच,

नर कूँ को नीच कर डारी है ओछे करम के कीच”

 

रैदास का कहना है कि जाति एक ऐसा रोग है जिसमें भारतीयों की मनुष्यता का नाश कर दिया। जाति इंसान को ऊंच-नीच में बांट देती है। उनका कहना है कि जब तक जाति खत्म नहीं होती तब तक लोगों में इंसानियत जन्म नहीं ले सकती। रैदास बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं। जिन तत्वों से हिंदू बने हैं उन्हीं तत्वों से मुसलमान। दोनों का जन्म तरीका एक ही है। रैदास जी ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहां संपत्ति पर निजी मालिकाना हक नहीं होगा। समाज अमीर-गरीब में बंटा नहीं होगा। कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं होगा और ना ही कोई छूत-अछूत होगा।

 

हमारी संस्कृति के वाहक महान संत बाबा गुरु घासीदास ने मानवतावादी व समतावादी संदेश दिया। बाबा गुरु घासीदास का कार्य पूर्णतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ओत-प्रोत रहा। ऊंच-नीच असमानता, भेद-भाव और रूढ़ियों के विरुद्ध उन्होंने मानव मानव एक समान सिद्धांत प्रतिपादित किया। इसका असर छत्तीसगढ़ प्रांत के वंचित व शोषित तबकों पर पड़ा। बाबा गुरु घासीदास के मनखे मनखे एक समान सतनाम आंदोलन से विभिन्न जातियों में बंटे पिछड़े तबके के लोग एकसाथ मिले एवं बाबा गुरु घासीदास के 7 सिद्धांत एवं 42 वाणी को अपने मन, वचन व कर्म में पालन करने का प्रण लिया। बाबा गुरु घासी की वाणी व बुद्ध की वाणी समान है।

 

तत्कालीन समय छत्तीसगढ़ की धरती सतनाममय हो गई। बाबा गुरु घासीदास ने सामाजिक एकता और आर्थिक मुक्ति का आंदोलन चलाया। बाबा गुरु घासीदास सामाजिक व आर्थिक आंदोलन के फल स्वरुप अंग्रेजों ने 1840 में भूमि मालिक मकबूजा कानून बनाया, जिसमे जमीन पर काबिज भुदासो को उस जमीन पर मालिकाना अधिकार मिला। इसके फलस्वरूप हजारों सतनाम संस्कृति के अनुयायी मालगुजार बने। बाबा गुरु घासीदास की महान संस्कृति को उनके बेटे राजा गुरु बालक दास ने आगे बढ़ाया। उनकी न्यायप्रियता को देखकर अंग्रेजों ने राजा गुरु बालक दास साहब को राजा की उपाधि दी एवं तलवार, हाथी व सैनिक दस्ता रखने का अधिकार दिया। राजा गुरु बालक दास के शौर्य की वजह से छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में सामंती शासन नहीं चला। ऐसी महान सतनाम संस्कृति को हम बारंबार नमन करते हैं। हमें गर्व है कि हम ऐसी तथागत बुद्ध, गुरु रैदास, संत कबीर साहेब, गुरु घासीदास की संस्कृति के मानने वाले हैं।

 

गुरु घासीदास के प्रभाव से अन्य जातियों के अनेक लोग सतनामी हो गए। इनमें अहीरों की संख्या अधिक थी। ऐसे मतांतरण 1840 से 1850 के बीच सर्वाधिक हुए (डॉ. हीरा लाल शुक्ल के किताब में वर्णित) बाद में सतनाम पंथ में कुर्मी, तेली, गोंड, अहीर, रावत, बैगा, लोहार, महार, लोधी आदि का भी समावेश होता गया। यदि 1860 की त्रासदी न होती तो छत्तीसगढ़ का सामजिक इतिहास कुछ और होता। ब्रिटिश इंडिया द्वारा जारी की गई नागपुर प्रेसिडेंसी अंतर्गत जनगणना 17 फरवरी 1881 के पेज नम्बर 25 के टेबल 3 में सतनाम रिलीजियस के अनुयायियों की संख्या 3, 98, 409 थी। कबीर पंथ अनुयायियों की संख्या 3, 47, 994, आदिवासियों की संख्या 64, 26, 511 व बुद्धिस्ट अनुयायियों की संख्या 3418884 थी, ये तीनों रिलिजयस गैर हिन्दू थे।

 

हमारी महान प्राकृतिक संस्कृति के संरक्षक महान टंट्या भील बिरसा मुंडा, वीर गुंडाधुर सहित तमाम जल जंगल व जमीन के खातिर प्राणों की आहुति देने वाले महान पुरखों की बात करें तो हमें बहुत ही गर्व होगा। हमारे महान पुरखों ने जल, जंगल, जमीन, प्राकृतिक संपदा को संरक्षित करने अपने प्राणों की आहुति दे दी। हमारे प्राकृतिक संस्कृति के महान संरक्षकों ने प्रकृति को सर्वोच्च माना। क्योंकि हम सब प्रकृति से जुड़े हुए हैं और यही हमारी संस्कृति का हिस्सा है। हमें अपने महान पुरखों की कुर्बानियों को याद करते हुए हमारी महान प्राकृतिक संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए तेजी से कार्य करने होंगे।

 

हमारी तर्कशील वैचारिक संस्कृति को आगे बढ़ाने वाले राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले, शाहू जी महाराज, माता सावित्री, बाबा साहब अंबेडकर, माता रमाई सहित तमाम महान पुरखों के त्याग व समर्पण के आगे हम सदैव नतमस्तक रहेंगे। हमें शोषण से मुक्त कराने व सामाजिक न्याय दिलाने के लिए किए गए संघर्षों के कर्ज को हमारी आने वाली पीढियां चुका नहीं पाएंगी। यही हमारी मूल संस्कृति है। बाबा साहब ने संविधान लिखकर सारी रूढ़ियों को खत्म किया व समता, समानता, स्वतन्त्रा, बंधुत्व व सामाजिक न्याय की स्थापना की। जाति के विनाश किताब में बाबा साहब ने रूढ़ि संस्कृति का बेहतरीन विश्लेषण किया है। हमारी महान से संस्कृति संविधान में भी निहित है।

 

आज बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर हमारी महान संत परंपरा व तर्कशील वैचारिकी परम्परा के रीढ़ सभी महानायकों को याद करते हुए इस महान संस्कृति को आगे बढ़ाने अपना योगदान दें।


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