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चीन में कम्युनिस्ट राज के खिलाफ जनक्रांति | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

के. विक्रम राव

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।


 

दुनिया भर में सालभर से कोविड के कारण लगी पाबंदियां हट रहीं हैं, छट रहीं हैं। मगर सिर्फ चीन में नहीं। पचास से अधिक विश्वविद्यालयों, बीजिंग मिलाकर, में अंदेशा है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग सत्ता में डटे रहने के लिए ओवरटाइम कर रहे हैं। इसके विरोध में ठिठुरते हुए करोड़ों नागरिक रात भर सड़कों पर प्रदर्शन करते रहे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार शनिवार को (19 नवंबर 2022) देशभर में रूग्ण जन की संख्या 40,347 बताई गई। जांच से फिर पता लगा कि केवल 3,822 लोग ही लक्षण से ग्रस्त थे। वस्तुस्थिति यह थी कि 26,525 स्वस्थ निकले। आरटी पीसीआर परीक्षण (रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन पॉलीमर्स चेन रिएक्शन टेस्ट) का यह निदान यही रहा। डर उपजा है कि कोविड का भय दिखाकर पुलिसिया राज कायम रहेगा।

 

अनवरत लाक डाउन के फलस्वरुप संतप्त नागरिक खुला विरोध कर रहें हैं। उनका नारा है : “शी सिंहासन छोड़ो। कम्युनिस्ट पार्टी खत्म करो।” बीजिंग का नजारा तो भिन्न है। मध्य चीन में यांगत्से तथा हान नदी तटवर्ती हुवेई प्रदेश के वुहान नगर से दिसम्बर 2019 से कोविड शुरू हुआ था। कल यहीं के राजमार्गों पर पीड़ित जन नारा लगा रहे थे कि : “कोविड वुहान से चला था, अब खत्म भी यहीं होगा।” जवाब में बड़ी संख्या में पुलिस ने उनका दमन किया। जनता की मांग है : “चीन को अनलॉक करो, पीसीआर टेस्ट नहीं चाहिए, प्रेस को आजादी दो।”

 

प्रदर्शनकारियों पर काली मिर्च का पाउडर छिड़का गया। लाठीचार्ज हुआ। उनके प्रतिरोध का तौर-तरीका लुभावना था। लंबा सफेद पन्ना हर कोई लहरा रहा था। सेंशरशिप का प्रतीक ! साथ में मांग कर रहा था कि : “मीडिया को मुक्त करो, लोकतंत्र बहाल करो।” गत माह ही समस्त संवैधानिक प्रावधानों को निरस्त करते हुए, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने शी जिनपिंग को हाथ उठाकर तीसरी बार निर्विरोध राष्ट्रपति चुना। अतः एक खास नारा जनता लगा रहीं थी : “हमें आजीवन शासक नहीं चाहिए। अब फिर बादशाह नहीं चाहिए।”

 

उत्सुक लोग पूछेंगे कि इब्तिदा इस इंकलाब की कैसे हुई ? विश्व की सबसे बड़ी आई फोन-उत्पादन फैक्ट्री, जिसका मालिक पूंजीवादी अमरीकी है, चीन के मध्य-प्रांतीय नगर जेंगझाऊ में स्थापित हुआ था। भारत को भी एप्पल फोन यही से भेजा जाता है। यहां श्रमिकों ने कोविड नियंत्रण के विरोध में खुली बगावत कर दी थी। तारीख थी 19 अक्तूबर 2022, बड़ी पहचानी तिथि हर कम्युनिस्ट क्रांति का महीना। इसी रूप में, चीन में भी आई थी। नियम से हर बड़ी बगावत प्रारंभ में चिंगारी मात्र होती ही है। वही ज्वाला बनकर धधकती है। लौ किसको लपेटेगी ? शी जिनपिंग जान रहें है।

 

इतिहास गवाह है कि चीन में गत सदी में (अक्टूबर 1912 तक) मध्ययुगीन नृशंस क्विंग साम्राज्य रहा। उसे क्रांतिकारी डॉ. सन यात सेन ने विप्लव द्वारा उखाड़ फेंका था। फिर उनके उत्तराधिकारी कोन्मिंतांग (केरएमटी : राष्ट्रवादी पार्टी) के अध्यक्ष मार्शल च्यांग काई शेक को माओ द्वारा उखाड़ कर कम्युनिस्ट अधिनायकाक तंत्र स्थापित किया गया। अब समूचे प्रतिरोध प्रकरण में चीन की नवसृजित सोशल मीडिया एक पैने अस्त्र के रूप में खूब प्रयुक्त हुई। हालांकि दो तीन बार उसे भी माओवादी सरकार ने नियंत्रित कर डाला। “वी-चैट”, “वेईबो” तथा “हैशटेग” को भी जकड़ दिया गया।

 

रोमांचक दृश्य था। आधी रात को कांपते (ग्यारह डिग्री तापमान में) बीजिंग के ठीक बीच से बहती लियांगमा नदी के तट पर गुस्सैल आवाज में क्रुद्ध नागरिक चीख रहें थे : “हमें कोविड परीक्षण नहीं चाहिए।” और “हमें आजादी चाहिए।” उन सब ने स्मरण किया 1989 में सैनिक पुलिस के प्रहार द्वारा तियानमन चौक पर विश्वविद्यालय को छात्रों का टैंक तले कुचला गया था। पहली बार इस दफा आमजन ने मुक्तवाणी से कहा कि “पार्टी की तानाशाही का अंत हो।” छात्रों का एक मर्मस्पर्शी नारा था : “हमारी जवानी कम्युनिस्ट शासन मे चुरा ली गई।” शंघाई (चीन का मुंबई) में एक महिला प्रतिरोधी ने गश्त लगाते सैनिकों से पूछा : “कैसा लग रहा है आपको ?” उन सब का संजीदा उत्तर था : “ठीक आपको जैसा लग रहा है।” फिर बोले “बस अपनी वर्दी का लिहाज है।” कतर के विश्व फुटबॉल को टीवी पर देखते करोड़ों दर्शकों की ओर इशारा कर कुछ ने पूछा : “उन्हें कोविड क्या नहीं सता रहा है ?” राष्ट्रीय राजधानी बीजिंग के विश्वविद्यालय में, जहां के शी जिनपिंग खुद स्नातक हैं, ये विरोध विशाल पैमाने पर रहा।

 

सर्वाधिक आंतकिल स्थल उरुमची रहा। यह मुस्लिम-बहुल शिनजियांग की राजधानी है। यहाँ पर एक बहुमंजली आवासीय भवन में आग लग गई। मजार नहीं मिली। कई लोग जिंदा जल गए, क्योंकि सुरक्षा गार्डों ने बाहर से किवाड़ पर ताला लगा दिया था। अकीदेवाले नमाज भी नहीं अता कर पाए। मस्जिद पर तालाबंदी ठोक दी गई थी।

 

उधर नई दिल्ली के वीरसिंह मार्ग पर स्थित ए. के. गोपालन भवन में लेशमात्र प्रतिक्रिया भी नहीं हुई। यह माकपा मुख्यालय है। वहाँ लगी माओ जेडोंग और कार्ल मार्क्स की तस्वीरें खिलखिला रहीं थीं। इतने क्रूर शासकों की भर्त्सना तक नहीं ! निरीह जनता के साथ सहानुभूति तक नहीं ! इससे याद आया जो सोवियत लाल सेना ने पोलैंड, हंगरी तथा चेकोस्लाविकया में किया था। वह हिंसक वारदातें थीं। गत सदी की। नतीजा क्या हुआ ? सोवियत साम्राज्य ही इतिहास की गर्त में धंस गया। कुछ इतिहासवेत्ताओं का आकलन था कि चीन में कल से तीसरी जनक्रांति शुरू हो गई है। पहली नवंबर 1912 में राष्ट्रवादी डॉ. सनयात सेन की थी। दूसरी माओ जेडोंग की 1949 में। येनान की गुफाओं से बढ़ी थी। तब चीन जनवादी गणतंत्र हो गया था। राजतंत्र समाप्त। पूरा देश ही कम्युनिस्ट क्रांति से प्लावित था।

 

अब इसका पटाक्षेप होगा। आस बंधी है कि चीन फिर स्वतंत्र जनतंत्र बनेगा। जनता का शासन आएगा, जनता द्वारा जनता के लिए। न कि कम्युनिस्ट पार्टी का राज केवल शी जिनपिंग के लिए। जनता का लहू बह रहा है। उत्सर्ग के कारण तिब्बत फिर बौद्ध हो जाएगा। इस्लामी प्रांत शिंजियांग में जम्हूरियत फिर पनपेगी। एशिया का लोकतान्त्रिक भारत रहनुमा बनेगा।

 

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