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गोवा मुक्ति की सत्यता ? नेहरु का रोल – भाग एक l ऑनलाइन बुलेटिन

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।


 

 

            गोवा, जहां आज (14 फरवरी 2022) विधानसभा हेतु वोट पड़े, पुन: एक ताजा सियासी ग्रन्थि बना दिया गया है। नरेन्द्र मोदी ने गत सप्ताह अपनी चुनावी जनसभा (उत्तरी गोवा के मापूसा : 10 फरवरी 2022) में कहा था : ” जवाहरलाल नेहरु ने इस पुर्तगाली उपनिवेश को आजाद कराने में 14 वर्ष लगा दिया। भारत के स्वतंत्र होने (15 अगस्त 1947) के तुरंत बाद यह हो सकता था।” संसद में भी मोदी ऐसे ही उदगार को व्यक्त कर चुकें हैं। वर्षों तक केन्द्रीय काबीना मंत्री रहे, हार्वर्ड में शिक्षित, पलनिअप्पन चिदंबरम चेट्टियार ने आरोप लगाया कि : ”मोदी इतिहास को उमेठ रहे हैं।”

 

उनकी राय थी कि : जवाहरलाल नेहरु ने सही समय पर गोवा को (19 दिसम्बर 1961) मुक्त कराया।” राहुल गांधी, जिनके जन्म (19 जून 1970) से दशक पूर्व ही गोवा भारत का अंग बन गया था, ने नीम हकीम के अंदाज में ज्ञान बांटते हुये अपनी दादी के पिता का बचाव किया। हालांकि मान्य दस्तावेजी तथ्यों के आधार पर यह स्वयं सिद्ध है कि गोवा की मुक्ति के पक्ष में नेहरु (दिसम्बर 1961, तीसरी लोकसभा के चुनाव) तक कदापि नहीं थे।

 

 

कांग्रेस की दलगत प्रतिस्पर्धा (1947) में नेहरु तनिक पिछड़ रहे थे। इसीलिये इस नवनामित प्रधानमंत्री ने पुराने साथी राममनोहर लोहिया द्वारा अचानक पाणाजी जाकर (18 जून 1946) को ही गोवा का स्वतंत्रता संघर्ष प्रारम्भ कर देने पर नाराजगी जाहिर की। इसे उन्होंने ”अनावश्यक तथा सनसनी खेज कदम” करार दिया। फरवरी 1947 में वे सार्वजनिक तौर पर बोले थे : ”गुलाम गोवा स्वतंत्र भारत के कपोल पर फुंसी है। अपने नाखून से इसे मसल डालेंगे।” मगर नाखून उगने में सोलह साल लगे।

 

उधर लोहिया के विषय में स्वाधीनता आन्दोलन के युगपुरुष महात्मा गांधीजी ने अपनी पत्रिका ”हरिजन” में मुक्तकंठ से सराहना की। इतना ही नहीं, 14 अगस्त 1946 को अपनी पत्रिका में महात्मा गांधी ने लिखा : ”लोहियाजी को बधाई दी जानी चाहिए।”

 

गांधीजी ने गोवा की प्रजा पर पुर्तगाली सरकार के दमन की कड़े शब्दों में आलोचना की और पुर्तगाली प्रशासन द्वारा डॉ. लोहिया की गिरफ्तारी पर सख्त बयान दिया। गांधीजी ने नेहरु से कहा कि वह गोवा में डॉ. लोहिया की रिहाई सुनिश्चित करें। प्रधानमंत्री नेहरु ने इस मामले में हस्तक्षेप करने में अपनी असमर्थता जताई।

 

समकालीन विचारकों ने उस दौर पर सवाल उठाया था कि चार सौ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के नन्हे गोवा से साम्राज्यवादियों को खदेड़ने में इतने सालों की देर क्यों ? बापू ने तो मात्र तीन दशकों में बत्तीस लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र वाले समूचे भारत को ही स्वतंत्र करा लिया था।

 

इसका कारण जानने हेतु उस दौर की राजनीति घटनाओं पर नजर डालने से सब स्पष्ट हो जायेगा। प्रथम और द्वितीय (1952 तथा 1957) लोकसभा के मतदान की तुलना में तीसरी लोकसभा का चुनाव नेहरु कांग्रेस हेतु काफी दुविधाजनक तथा आशंकामय भी हो गया था। उस वक्त स्वयं अपने फूलपुर (प्रयागराज) लोकसभा निर्वाचन में प्रधानमंत्री का सोशलिस्ट प्रतिद्वंद्वी डा. लोहिया से मुकाबला था।

 

बाद में मतगणना में दिखा कि नेहरु के मिले हर दो वोट की तुलना में लोहिया को एक वोट मिला था। नेहरु ने नामांकन के दिन ही जनसभा में घोषणा की थी कि वे फिर चुनाव अभियान में इलाहाबाद नहीं आ पायेंगे। मगर तीन बार आये। लोहिया की चुनौती इतनी गंभीर थी। उधर उत्तर बम्बई में नेहरु सरकार के प्रतिरक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन के विरुद्ध वयोवृद्ध जेबी कृपलानी ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर नामांकन किया।

 

तभी लोहिया की टिप्पणी थी कि : ”नौकर (मेनन) से भिड़ने के बजाये, मालिक (नेहरु) से लड़ो”। उस वक्त बम्बई में आभास हो रहा था कि मेनन पराजित हो जायेंगे। मेनन की छवि तबतक कम्युनिस्ट चीन समर्थक वाली हो गयी थी। तभी पाकिस्तानी राष्ट्रपति मार्शल मोहम्मद अयूब खान ने नेहरु के समक्ष प्रस्ताव रखा था कि संयुक्त सैनिक संधि बने ताकि दोनों राष्ट्रों की सुरक्षा हो सके।

 

इस पर नेहरु का जवाब था : ”संयुक्त सैनिक संधि, किसके विरुद्ध ?” क्योंकि मेनन ने ऐसा माहौल बना दिया था कि भारत पर आक्रमण का खतरा माओवादी चीन से नहीं, वरन अमेरिका—समर्थित इस्लामी पाकिस्तान से था। वरिष्ठ कांग्रेसी पुरोधाओं (एसके पाटिल, मोराजी देसाई आदि) ने नेहरु को मेनन के विरुद्ध सचेत भी किया था। पर कोई असर नहीं पड़ा।

               part 1 of 2

 

 


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