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Kabira खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ…

Rajesh Kumar Buddh,
राजेश कुमार बौद्ध

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय- संपादक, प्रबुद्ध वैलफेयर सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश


 

The social thoughts and ideals of Sant Kabir Das are as relevant today as they were then. Kabir’s message of mutual friendship, goodwill and tolerance by giving the message of rebellion against the social system opened the eyes of the people. (Kabira)

 

संत कबीर दास के सामाजिक विचार और आदर्श आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं कि जितना उस समय था। कबीर ने सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का संदेश देकर परस्पर मैत्री, सद्भावना, सहिष्णुता का जो संदेश दिया उससे लोगों की ऑखे खुली।

 

कबीर ने धर्म के नाम पर फैली अधर्म की प्रवृत्तियों को उजागर किया परस्पर में फैल रहें अंधविश्वास और अंध भक्ति को नकारा, धर्म के नाम पर रोटियाँ सेंक रहे साधु- संतों, फकीरों, मुल्लाओं, मौलवियों और पुजारियों को सत्य का ज्ञान कराया, आज धर्म के नाम पर जाने कितने ही भगवान, स्वामी, बाबा और कितने इमाम लोगों को गुमराह कर रहे हैं। आदमी को आदमी से लड़ा रहे हैं, परस्पर फैसला रहे हैं आर्थिक दुर्भावना और विध्देष हमें कौन से धर्म की ओर ले जा रहा है। आर्थिक शोषण के इस वातावरण में आज पग- पग पर कबीर साहब की याद आती हैं। जिन्होने दम्भ, भक्ति अहंकार, गर्व पद और मद में पल रहे आदमी के सम्बन्ध में कहां था कि-

कबीरा गर्व न कीजिये,

काल गाहे कर केस ।

ना जाने कित मारि के,

क्या घर क्या परदेश ।।

 

कबीर ने अति शुद्र कहलाने वालों से कहा कि भाई तुम लोग अपना सम्मान को इतना गिराकर क्यों अपमान कराते हो देखो कोई मनुष्य नीच नहीं होता, कर्म नीच होता हैं। नीच कर्म को त्याग कर अच्छे बनों, साफ सुधरे रहों, मांस मद (नशा) से दूर रहों, बुद्धिमान बनने के लिए अच्छे लोगों की संगति करों।(Kabira)

 

संत कबीर जी ने कहा पंडित जी! यह चिन्ह माननीय नहीं हो सकता क्योंकि यह तुम लोगों का बनाया हुआ है, ईश्वर का नहीं, इतना चिन्ह बनाने पर भी तुम पूरे ब्राह्मण नहीं हुए, क्योंकि तुम तो जनेऊ पहनकर ब्राह्मण हो गये, परन्तु अपनी अर्धांगनी को क्या पहनाया है वह तो जनेऊ रहित जन्म से शुद्रिन ही बनी हुई हैं जैसे-

धालि जनेऊ ब्राह्मण होना,

मेहरी का पहिराया।

वै तो जन्म की शुद्रिन परसै,

तुम पांडे क्यों खाया।।

 

कबीर दास जी ने कभी स्कूल का चौखट नहीं देखा वे कभी पढ़नें नहीं गये परन्तु उनका जो ज्ञान, दोहा और चौपाई आदि है वह बड़े ही गुण एव संघर्षशील है। कबीर जी ने कहा-

मासि कागज छुओ नहीं,

कलम गही नहीं हाथ।

 

क्रांति की एक ज्योति है कबीर, निरे साधु संत नहीं और न ही महज़ संत कवि। कबीर तो उस वक्त की तमाम वंचनाओं व विषमताओं और धर्मांध अंध श्रद्धाओं पर धारदार प्रहार करने में लगे हुये थे।

‘जाति न पूछो साधु की,

पूछ लीजिये ज्ञान’।

 

कहकर कबीर जन्मना जाति की घृणित व्यवस्था को चुनौती दे रहे थे, वे खुलकर कह रहे थे-

‘हम वासी उस देश के जहाँ

जाति, वरण कुल नाहीं’।

 

कबीर पत्थरों में खुदा तलाश रहे बुतपरस्तों को भी ललकारते हुए कह रहे थे –

‘पाथर पूजे हरि मिले,

तो मैं पूजूँ पहार’।

 

दूसरी तरफ बांग लगाते मुल्लाओं से भी उनका सवाल था –

‘कांकर पाथर जोरि के,

मस्ज़िद लई बनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे,

क्या बहिरा हुआ खुदाय’।।

 

आज कबीर होते तो क्या वह कह पाते यह सब ? मुझे तो लगता है कि अगर आज कबीर यह कहते तो सत्ता प्रतिष्ठान उनको 295 (ए) में अन्दर कर देता अथवा धर्म के ध्वजवाहक – मजहब के झंडाबरदार तथा नैतिकता के स्वयम्भू पैरोकार उन्हें मॉब लिंचिंग में मार डालते।(Kabira)

 

कबीर को उस वक्त की राज्य सत्ता ने मदमस्त हाथी से कुचलवाने की कोशिश की थी,पंडे पुरोहित, मुल्ले मौलवियों ने उनको उलझाने की साज़िश की थी, पर कबीर ने इनकी कोई परवाह न की।वह ” रामानंद की फौज ” से अकेले ही भिड़ते रहे, यत्र तत्र विचरता रहा, लोगों को अपने चरखे और कताई के प्रतीकों के ज़रिये ज्ञान, विवेक और चैतन्यता का बोध कराते रहे।(Kabira)

 

उसने किसी की परवाह न की न धर्म की,न शास्त्रों की और न ही शास्त्रीय भाषा की, उलटबासियों के ज़रिए, अपने शब्द व साखियों के जरिये कबीर जन साधारण को जगाते रहे।

‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ’,

पंडित भरा न कोय।

 

कहकर कबीर ने शिक्षा पर पुरोहित वर्ग के एकाधिकार को चिन्हित किया और दूसरे ही क्षण यह भी कह डाला ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय’

 

कबीर ‘कागद’ की लिखी से ज्यादा ‘आँखन की देखी’ की बात करते है, यह किताबों को ईश्वरीय बताकर आम जन की चेतना का हरण करके उन्हें श्रद्धालु बना डालने वाले पुरोहित वर्ग के षड़यंत्र के विरुद्ध कबीर का विद्रोह है।

 

कबीर वेद, कुरान, पुराण, धर्म, मजहब, पंथ और जाति, वर्ण की कुल श्रेष्ठता के दंभी दावों की धज्जियां उड़ाते हुए अपने अनुभव जन्य यथार्थ से अवगत कराते हैं।(Kabira)

 

कबीर आग है, उससे बचा नहीं जा सकता है, कबीर नग्न सत्य है, उस पर कोई लीपापोती नहीं हो सकती है,जो है, सो है यही तो कबीरी है, यही तो फ़क़ीरी है।

कबीरा खड़ा बाजार में,’

लिये लुकाटी हाथ’।

 

निर्भीक खड़े है, ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर की भावभूमि पर ..कबीर का कोई मुकाबला नहीं है ,कबीर होना आसान भी तो नहीं है।

 

कबीर होने के लिए असली फकीर होना पड़ता है।आज के फ़क़ीरों की तरह अदाकारी से काम नहीं चलता। परन्तु आज कबीर साहब के अनुयायी स्वयं अंधविश्वासी होते जा रहे हैं। कबीर जी ने जिसका खुलकर विरोध किया और अंधविश्वास को दूर करने का प्रयास किया और जीवन भर ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया। वहीं कबीरपंथी लोग आज पुनः अंधविश्वास के दल दल में फंस रहे हैं। (Kabira)

 

 

 

नोट– उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

 

 

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