भारत देश एक पवित्र देश है। यहां की परिवेश, समाज और संस्कृति अन्य देशों से कुछ भिन्न है। विभिन्न जाति और धर्मों के समावेश के बावजूद भी कई मायनों में अद्भुत समानता की विचार धाराएं सदैव बहते आ रही हैं। समानता की इस विचार धाराओं को हम कई तराजूओं से तौल सकते हैं और उनकी वजन अन्य देशों की फूहड़ मानसिकता वाली एक तुलनात्मक सभ्य संस्कृति से भारी अवश्य मिलेगा। वैसे तो आज के आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों तथा सक्रिय मीडिया, चैनलों की वजह से देश के बुद्धिजीवी लोग साहित्यिक करके अपना अस्तित्व बचा पा रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा भी है जो पढ़े-लिखे होकर भी, खासकर युवा वर्ग (लड़के लड़कियां) अपने सभ्य समाज को दरकिनार कर खुद की ईज्जत और मानवीय अस्तित्व को भूलने लगे हैं। उन्हे जरा भी एहसास नहीं अपने परिवार, समाज और इस प्रगतिशील देश के नैतिक हक के बारे में। ये हक किसके लिए? देश में रह रहे नागरिकों की व्यक्तित्व की विकास, समाज और संपूर्ण राष्ट्र की विकास के लिए ही तो है।
उसी संदर्भ में हम समाज के उन युवा वर्गों की बात करना चाहेंगे जिन्हें भौतिक दर्पण से लेकर एक सशक्त और अच्छे सोच वाले दर्पण की कितनी जरूरत है। मानते हैं आज के युग और आज के हालात में पैसे की अहमीयता मानवीयता से भी बढ़कर दिखने लगी है। लोगों में आधुनिकता की लहर नस -नस में बहने लगा है। आजकल के इस चमक-धमक वाली जीवन, खासकर युवा वर्ग पर बेहिसाब हावी होने लगा है। ऐसा लगने लगा है मानो लोगों में धैर्यता ही खत्म हो गया हो। अर्थात; वाकई में सोच की गति तो तीब्र हुई है लेकिन दिशाविहीन भी दिख रही है। वास्तव में हर क्षेत्र में प्रगति हो रही है लेकिन उससे निकले कुछ दुष्परिणाम भी उतने ही तेजी से उस गति को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है। एहसासें जरूर हैं लोगों में लेकिन इग्नोर करके विलाषिता को अपने ऊपर हावी करते जा रहे हैं। मालूम हो कि यही विलाषिता की बस्तुएं अर्थात बिलाषिता वाली सोच एक दिन हम सबके उपर भी हावी हो जाएगी और हमें बर्वादी के डगर में धकेल देगा।
जमाने के लोग भी उन कड़ी संघर्षों के बीच ऐसो आराम से जरूर रहते थे लेकिन दिखावे की चीजें उन पर इतना हावी नहीं थीं। उन चीजों में प्यार की एक अलग ही खुशबु बहती थी मगर आज के युग में वो एहसास क्षणिक रह गया है। किसी को किसी से बहुत ज्यादा मतलब रह नहीं गया और कारण सिर्फ और सिर्फ स्वार्थपरता और कुंठित मानसिकता दिखाई पड़ रही है। अपने सोच को इस प्रकार ढाल रहे हैं जैसे कि आज की विलाषिता को पाकर हमें कल ही पंच तत्व में विलीन हो जाना है। भविष्य अब हमारे खाते में बची ही नहीं। हाँ उम्मीदें तो बहुत हैं अपने उन क्षणिक सुखों की भविष्य की लेकिन उनके दुष्परिणामों की तनिक भी एहसास नहीं है।
बात करते हैं एक अच्छे सोच वाली दर्पण की। आज समाज कई तरह के जीवन शैली के सोच के वर्गों में बंट चुका है। हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं आज के कुछ युवा वर्ग के बारे में जो देश के भावी कर्णधार हैं। क्या वे यही चाहते हैं, अन्य देशों की तरह ही हमारा सभ्य संस्कृति वाला देश भी एक फूहड़ देश बने! कुछ लोग पैसे की लालच में सार्वजनिक तौर पर खुलेयाम अपने जिस्म की नुमाईश देकर अपने ईज्जत की तार-तार कर रहे हैं। उनको एहसास नहीं कि आज मैं अपना जिस्म दिखाकर, लोगों को भ्रमित कर उनकी दिशा भटकाने में कामयाब हूं और मेरे जेब भर रहे हैं, लेकिन साथ ही ये भी याद रखना चाहिए कि कल को मेरे औलाद भी मेरी नकल करेंगे और कहीं ना कहीं मेरी फूहड़पना की हद पार करके मुझे भी जीत जायेंगे। वक्त बीतेगा, उम्र ढलेगा तब एहसास होगा कि मैंने जो भी तरीका अपनाया वो सरासर अनैतिक और असभ्य था। अर्थात हमारी सोच एकदम भिन्न और घटिया था।
आग्रह होगा इस सभ्य देश का और एक जिम्मेदार सभ्य समाज का कि अपना सोच को नैतिक और उचित दिशा दें जिसे अपने साथ-साथ अपने परिवार, समाज और देश की ईज्जत बनी रहे। देशवाशियों का कल्याण हो सके। हम सब अपने राष्ट्र को सदैव एक मजबूत राष्ट्र के रूप में देख सकें। अंग प्रदर्शन को फैशन ना बनाएं तथा लोगों को दिग्भ्रमित ना करें। याद रहे आपके किए का जो परिणाम आयेगा उसमें आप भी बच नहीं पाएंगे। अपने कर्मों से सदैव ही देश को एक अच्छा संदेश दें और देश रक्षा और देश के प्रगति की सहयोग में सदैव हाथ बटाएं उसी में अपने राष्ट्र का भलाई है। (अर्जी है इस लेख को सकारात्मकता के साथ प्यार दें!)