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मैं मजदूर हूँ…….

©बिसेन यादव ‘बिसु

परिचय- दोन्देकला, रायपुर, छत्तीसगढ़

मैं मजदूर हूॅं…….

सड़कों पे रिक्शा और मैं ही,

खेतो में हल चलाता हूॅं।

तपती धूप में पसीना बहाकर,

मैं खेतों में अन्न उगाता हूॅं।

 

मेरे मेहनत से लहराती है खेतों में बाली।

मैं ही हूॅं लोगो के जीवन की खुशहाली।

 

मैंने पुल,जलाशय, भवन अटारी बनाया।

और मैंने ही रेल के डिब्बे,पटरी बनाया।

 

मैं नव निर्माता हूॅं।

मैं ही अन्नदाता हूॅं।

 

देश की उन्नति मैं ही हूॅं।

राज्य की प्रगति मैं ही हूॅं।

 

मैं एम्पोरियम, मार्ट में झाड़ू-पोछा,

लगाते मिल जाऊंगा।

मैं शहरों में गलियों की नाली साफ

करते दिख जाऊंगा।

 

मैं ही स्टेशन पर कुली बनकर सबका

बोझ उठाता हूॅं।

और मैं ही गली-गली घुम-घुमकर गुब्बारे

वाला कहलाता हूॅं।

 

मैं कारखानों में काम करने वाला।

मैं सम्पूर्ण जग का बोझ ढोने वाला।

 

मैं मंडियों में उद्योगों में चाय के बागानों में।

मैं सरहद पर होटल में कोलले की खदानों में।

 

मैं हूॅं तो सब कुछ पुरा है।

मेरे बिना ये जग अधुरा है।

 

मैं खुन की अश्रु पीकर।

मैं भुखे प्यासे रहकर।

 

हाथों में दोपहर का टिफिन लिए।

उसमें दो रोटी थोड़ी भोजन लिए।

 

एक दिन की दिहाड़ी के लिए।

अपनी रोजी-रोटी के लिए।

 

तेज धूप दोपहर में हम चले तपने।

खुन पसीना एक कर हम चले बिकने।

 

हम जा रहे हैं गिट्टी,मुरूम उठाने।

किसी का घर,मकान,शोरूम बनाने।

 

आराम करना हमारे लिए तो हराम है।

दिन रात मजदूरी करना अपना काम है।

 

नहीं जा रहें हैं हम सियासी करने।

हम जा रहें हैं भट्ठों में निकासी करने।

 

हम क्या जाने सियासी क्या होता है।

हमको क्या पता अय्याशी क्या होता है।

 

हमको नहीं पता राजनीति की राज गहरे।

हम तो हैं रे अगुठा छाप मजदूर ठहरे।

 

चमकदार उजले कपड़े है तेरे।

फटे-पुराने चिथड़े मटमैले मेरे।

 

तू सोता है मखमल की बिस्तर पर।

हम सो जाते हैं फुटपाथों पर।

 

मेरी किस्मत में टुटी फुटी छप्पर है।

मैं मजदूर हूॅं मेरा यही मुकद्दर है।

 

बस वक्त के हाथों मैं मजबूर हूॅं।

इसलिए आज मैं मजदूर हूॅं।


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