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सिद्धार्थ के जीवन में यदि सुजाता नहीं आती तो संसार को Buddha नहीं मिल पाते…

Buddha
डॉ. एम एल परिहार

©डॉ. एम एल परिहार

परिचय- जयपुर, राजस्थान.


 

If Sujata had not come in Siddharth’s life, the world would not have found Buddha, because the body had dried up and become a thorn due to painful penance, the stomach had stuck to the back.

 

ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन: सिद्धार्थ के जीवन में यदि सुजाता नहीं आती तो संसार को बुद्ध नहीं मिल पाते, क्योंकि कष्ट देने वाली तपस्या से शरीर सूखकर कांटा तो हो ही गया था, पेट पीठ से चिपक गया था.

 

उरुवेला (उरूबिल्व) के सुंदर वन में निरंजना (फल्गु) नदी कल कल बहती थी. वहीं सेनानी कस्बे के एक संपन्न गोपालक गृहपति की पुत्री थी सुजाता. वहां के लोग प्रकृति के उपासक थे. नदी, पहाड़, वृक्ष आदि में देवताओं का वास मानकर पूजते थे. सुजाता ने भी एक न्यग्रोध (बरगद) के वृक्ष से मनौती मांगी थी. (Buddha)

 

सुजाता का विवाह वाराणसी में हुआ. संयोग से उसकी मनोकामना पूरी हुई. वैशाख पूर्णिमा को वह दासी पूर्णा के साथ अपने पीहर आई और वट वृक्ष की पूजा के लिए स्वादिष्ट खीर बनाई.

 

दासी को कहा, पुर्णे ! तुम पवित्र वटवृक्ष के पास जल छिड़क कर, सफाई कर जल्दी आओ. मैं वृक्षदेव को खीर अर्पित करने जा रही हूं.(Buddha)

 

पिछले छ: साल से कुमार सिद्धार्थ आश्रमों व दूसरी जगहों पर ध्यान, समाधि व ज्ञान का अभ्यास कर रहे थे. इस समय उरुवेला में कठिन तपस्या के लिए बैठे हुए थे. भोजन छोड़ दिया. काया सूखकर कांटा हो गई थी.

 

इसी दौरान सपने में तीन वीणा वादक युवतियां गा रही थी. “जीवन की वीणा के तारों को इतना मत कसो कि टूट जाए और इतने ढीले ली भी मत रखो कि स्वर ही नहीं निकले. वीणा के मध्य कसे तारों से ही मधुर स्वर निकलता है”.(Buddha)

 

सिद्धार्थ ने इसके बाद कठिन तपस्या का मार्ग छोड़ दिया और उसी वट वृक्ष के नीचे आसन लगा दिया जिससे सुजाता में मनौती मांगी थी. दासी पुर्णा ने वृक्ष के नीचे आसन लगाए बैठे सिद्धार्थ को देखा. उनके शरीर से निकलने वाली आभा से सारा वटवृक्ष प्रकाशित हो रहा था.

 

वह अचंभित हो गई- आज हमारे वृक्ष देवता स्वयं अपने ही हाथ से खीर ग्रहण करने को विराजमान है.(Buddha)

 

पूर्णा दौड़ी दौड़ी घर आकर सुजाता को सारी बात बताई. सुजाता बहुत प्रसन्न हुई. उसने पूर्णा को गले लगाते हुए कहा, पुर्णे ! आज से तू मेरी पुत्री बनकर रहेगी.

 

सुजाता ने आनंद व भाव विभोर मन से आठ गायों के मिश्रित दूध से बनी खीर को सोने के थाल में परोसा. आभूषणों से सुशोभित हुई. बोधिसत्व सिद्धार्थ को साक्षात वृक्ष देवता समझकर सोने का थाल उनके सामने रखा.

 

वंदना करते हुए कहा, ‘जैसी मेरी मनोकामना पूरी हुई, वैसे ही तुम्हारा भी मनोरथ पूरा हो’. ऐसा कहकर वह सोने के थाल को पुरानी पत्तल की तरह समझकर घर आ गई. (Buddha)

 

सिद्धार्थ खीर से भरा थाल लेकर निरंजना नदी के किनारे आए. स्नान कर उनचास ग्रास में खीर का भोजन किया. और यही भोजन उनके बुद्धत्व प्राप्ति होने तक के लिए भारी सहायक बना क्योंकि इतने दिनों तक उन्होंने कोई दूसरा आहार नहीं लिया था. खीर खाकर उन्होंने स्वर्ण थाल को निरंजना नदी में झूठे पत्तल की तरह फेंक दिया.

 

उसी शाम को वे वहां से चलकर एक पीपल के पेड़ (बोधिवृक्ष) के नीचे दृढ़ निश्चय कर बैठ गए.

 

“चाहे मेरी चमड़ी, नसें, हड्डियां ही क्यों न बाकी रह जाए और शरीर में रक्त सूख जाए तो भी सत्य, ज्ञान को प्राप्त किए बिना इस आसन को नहीं छोडूंगा”. उसी रात उन्होंने मार को पराजित कर बुद्धत्व प्राप्त किया.

 

बाद में सुजाता का पूरा परिवार बुद्ध व धम्म का उपासक बना और सुजाता स्त्रोतापन हुई.

 

तथागत ने सुजाता की धम्म के प्रति श्रद्धा देखकर कहा था. भिक्खुओं! उपासिका व श्राविकाओं में प्रथम बुद्ध की शरण आने वालिओं में सुजाता अग्रणी है ”

 

सुजाता की स्मृति में उनके गांव में सम्राट अशोक ने विशाल स्तूप बनवाया था जो आज भी उस धम्म गौरव की कहानी का बखान कर रहा है.

 

भवतु सब्बं मंगलं..सबका मंगल हो..सभी प्राणी सुखी हो

Buddha

 

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