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दोज़ख़ | ऑनलाइन बुलेटिन

©बिजल जगड

परिचय- मुंबई, घाटकोपर


 

दोज़ख़ का एहसास फिर भी हँसते रहे,

अश्क आंखों में बार बार फिर भी हँसते रहें।

 

बतादे कोई इस मसले का हल इस पल,

आंखे मांगे सब्र की रिश्वत फिर भी हँसते रहें।

 

चांद की पिघली चांदनी रो चुके शब भर,

है रात की ये जुल्मत हम फिर भी हँसते रहें।

 

कितना ज़ालिम ज़लज़ला बेरहम दिल का,

तेज़ दहेके मन की आग फिर भी हँसते रहें।

 

बे-निशाँ है सफ़र काटी वक्त की परछाई,

वहम-ओ-गुमाँ के साए फिर भी हँसते रहें।

 

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