नकाब़ | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

©उषा श्रीवास, वत्स
रक्त वर्षों से नसों में खौलने लगा है,
आप कहते हैं धीरे-धीरे मौसम बदलने लगा है।
टूटा हुआ रथ आज फिर चलने लगा है।
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ,
हर आदमी चेहरे पर अब नाकाब़ पहनने लगा है।
यह फ़लसफा न कोई सीधा-सा एक सच है,
आदमी कुछ और मंसूबे कुछ और रखने लगा है।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
बेकाय़दे अब क़ायदे-कानून परखने लगा है।
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