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वजूद | ऑनलाइन बुलेटिन

©हिमांशु पाठक, पहाड़

परिचय- नैनीताल, उत्तराखंड.


 

एक दिन!

मेरा वजूद आया,

मुझसे मिलने।

मैं नहीं पहचान पाया,

पूछा मुझसे!

“मैं कौन हूं?”

वजूद ने कहा,

“मैं,मेरा वजुद हूं”!

मैं चौंका ओर पूछा,

“मेरा वजूद”!

मैं बोला,”हा भाई हाँ”!

मैं आश्चर्यचकित हो,

निहारें रहा था,

अपने वजूद को।

मेरा वजुद फिर कहने लगा,

“मैं तो बचपन से ही,

मेरे साथ था मेरे भीतर,

परन्तु मुझे दबा दिया गया,

मजबूरी की कब्रगाह में,

मैं! हर पल तड़पता रहा वहां,

मैं उस घटना से बाहर आना चा;

परन्तु हर बार मुझे धकेल दिया गया,

उसी मजबूरी की कब्रगाह में,

कभी पढ़ाई की मजबूरी

कभी सुखद भविष्य की मजबूरी,

कभी गृहस्थी की मजबूरी,

कभी दूसरों की इच्छाओं की पूर्ति,

कभी समाज क्या कहेगा की मजबूरी,

कभी सामाजिक दायित्व,

कभी आर्थिक मजबूरी,

इन्ही सभी मजबूत दिवारों से बनी,

कब्रगाह में, मैं धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा,

और एक दिन मैं,

हमेशा के लिए सो गया,

कब्रगाह में।”

तो फिर मैंने पुछा, चौंकते हुए

“अभी बाहर कैसे निकले!”

मेरा वजूद बोला,

“मूर्ख! मैं वजूद का तन नही हूँ;

मन हूँ रे! वजूद का,

जगाने आया हूँ मुझे”

“मुझे!मुझे जगाने!

मैं कब सोया हूँ?”

मेरा वजूद मुझसे कहने लगा,

“मैं तो हूँ ! मैं जगा भी हूँ;

परन्तु मेरा वजूद क्या है?

क्या मैं नही चाहता,

सपने देखना?

क्या मैं नही चाहता,

सपनों की उड़ान भरना?

चाहता हूँ  ना!

तो थोड़ा अपने लिए भी तो जिऊँ!

अपनी ख़्वाहिशों को पूरा करूँ;

परन्तु अपनों को साथ लेकर

ना कि  स्वार्थवश अकेले चलकर।

याद रखना,जो सपनों की उड़ान,

अपनों को साथ लेकर भरी जाती हैं

उन सपनों में उतनी ही रंगत आती है।”

ऐसा कहकर मेरा वजूद अंधेरों में,

कही विलुप्त हो गया और

मैं अपने वजूद की बातों पर,

मनन करने लग गया।

 

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