कुल्हड़ की चाय…….

©डॉ. संतराम आर्य
परिचय- वरिष्ठ साहित्यकार, नई दिल्ली,
उन दिनों बस्ती से दूर
गांव के बाहर
मजदूरी ठिकानों के पास ।
शीशे के गिलास और
मिट्टी के कुल्हड़ में
मिलती थी चाय ।
गिलास को हाथ
लगने से पहले
पूछ ली थी मेरी जात
जुबां पर जात मिली छोटी
तो मिट्टी का कुल्हड़ ही
मेरे हिस्से में आया ।
कुल्हड़ में पडी़ चाय
मिट्टी की सोंधी सोंधी
खुशबू के साथ
जब होठों से लगी
तो ख्याल आया ।
कुल्हड़ की खुशबू से
शीशे के गिलास की खुशबू
ज्यादा अच्छी होगी
और मैं खोजने लगा अपने में
बड़ी जात के आदमी को ।