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नाकामियों का बोझ…

©भरत मल्होत्रा 

परिचय- मुंबई, महाराष्ट्र


 

नाकामियों का बोझ जिगर पर लिए हुए

लौटा तेरे दर से दीदा-ए-तर लिए हुए

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कत्ल कर चुके हैं कितनों को ही लफ़्ज़ों से

फिरते हैं वो ज़ुबान में नश्तर लिए हुए

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शीशे के बदन वालो घरों से न निकलना

खड़े हैं लोग हाथों में पत्थर लिए हुए

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वक्त की तरह गुज़र गए घड़ी में वो

मैं बैठा रहा बिगड़ा मुकद्दर लिए हुए

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कूचा ए कातिल में हरसू शोर उठा, जब

मैं आया तेरी याद का लश्कर लिए हुए

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भरत मल्होत्रा

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