तुम और हम | ऑनलाइन बुलेटिन
©संजय वासनिक, वासु
परिचय- चेंबुर, मुंबई.
तुम मनाओ ख़ुशियाँ
और हम मातम मनाते रहे
जो तुमने किया होगा।
शायद हमने भी उससे ज़्यादा
की होगी, नहीं की है, मेहनत।
ये बोझ ढोने का नाटक तुम्हारा
सच तो बोझ हम ढो रहे थे।
तुम्हारे झूठ भी उन्हें सच लगता है
और हमारे सच झुठलाये जाते हैं।
चापलूसी तुम्हारी उन्हें मेहनत लगती है
हमें तो चापलूसी करनी आती ही नहीं है।
तुमने कब की पार कर दी बेशर्मी की हदें
हम अपने स्वाभिमान पर हमेशा अड़े रहे।
तुम्हारे माथे पर लगी है ईमानदारी की सील
और कुल्हे पर हमारे लगी है चोर की सील।
क्योंकि तुम सदियों से ख़ुद ही ख़ुद को
कुलीन समझते ही नहीं मानते भी रहे।
हमें तो इंसान समझा ही नहीं गया
और हम अपनी क़िस्मत को कोसते रहे।
अब मिल गयी हमें ज्ञान की रोशनी
दैदीप्यमान उस ज्ञानसूर्य की प्रज्ञा से
हमें मिल गया है अब मसीहा हमारा
कोई अब ना सहेगा अन्याय का ज़ख़ीरा
दे रहे हैं हम तुम्हें हर क्षेत्र में टक्कर
इसलिये शायद आ गयी हाथ में फटकर।
अब तुम नये नये खेल खेल रहे हो
हमे ही नहीं अपनों को भी बेवकूफ बना रहे हो
जाति, धर्म, प्रांत, भाषा के चक्कर में
इंसान से इंसान को बांट रहे हो।