हर रोज़ है नया तमाशा | ऑनलाइन बुलेटिन
©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़, मुंबई
सर्कस की दुनिया में, हर रोज़ है नया तमाशा।
कोई रोता अपनी किस्मत पे, कोई हंसता बेतहाशा।
हर रोज़ कोई जीत जाता है अपनी बाज़ी।
दूजे को मनाता ज़िन्दगी भर, या ख़ुद होता राज़ी।
कहीं कोई झूठा, कोई कहीं है सच्चा।
फ़र्क़ नहीं पड़ता, जवान, बूढ़ा या बच्चा।
दौलत वाले करते अपनी दौलत की नुमाइश,
कोई रोटी को तरसते पल-पल, होती आज़माइश।
चकाचौंध भरी दुनिया का कोई है जोकर,
कोई है राजा यहां तो कोई किसी का नौकर।
शीशे के घरों में दिखता नहीं है कोई पर्दा,
तमाशा होता सरेआम, मन में धूल और गर्दा।