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अंजान सा रहता हूं…

©प्रा.गायकवाड विलास

परिचय- मिलिंद महाविद्यालय, लातूर, महाराष्ट्र


 

 

इतनी भीड़ में भी इक अंजान सा रहता हूं,

सच्चाई का दर्पण लेकर जो में फिरता हूं।

 

बदले जमाने के संग संग जीना मुश्किल हो गया है,

आज का ये ज़माना,जाने किस धुन में खो गया है।

 

इन्सानों का शहर भी वो क्युं इतना गुमसुम लगता है,

हर चेहरा देखो यहां पे कितना उदास दिखता है।

 

झूठ की हंसी लिए ये सारा ज़माना खिल उठा है,

मन में उदासी और निगाहों में स्वार्थ का रंग छिपा है।

 

चाहतों के मेले में भी प्रीत की गहराई नहीं है,

हर चेहरा अब यहां जैसे कोई सावज ढूंढ रहा है।

 

ईमान लिए चलनेवाला हर इन्सान यहां पे अकेला है,

कहीं भी देखो चारों दिशाओं में झूठ का बोलबाला है।

 

इतनी भीड़ में भी इक अंजान सा रहता हूं,

बदले हुए जमाने में भी अपना सा कोई ढूंढता हूं।

 

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