मगर याद न आई…
©गायकवाड विलास
परिचय- मिलिंद महाविद्यालय लातूर, महाराष्ट्र
इस वतन की मिट्टी कभी भूल न जाना,
उस मिट्टी के आंचल में तुम्हें है खिलना।
मिट्टी ही हमारी ममता,मिट्टी ही हमारा गुरूर,
इसी मिट्टी की गोद में समाई है अपनों की तस्वीर।
जहां सदियां बीत गई सारी तेरे अपनों की,
मगर याद न आई उन्हें कभी किसी परदेस की।
मिट्टी के दीवारों में ही बचपन उनका गुजरा,
अपनों के संग संग ही हुआ जिंदगी का गुज़ारा।
ख्वाईशें नहीं थी और कुछ ज्यादा पाने की,
फिर भी कभी कमी न आई घर में खुशियों की।
जहां सदियां बीत गई सारी तेरे अपनों की,
मगर याद न आई उन्हें कभी किसी परदेस की।
देस अपना प्यारा अलग है सारे जहां से,
खून का रिश्ता है हमारा इसी ममता भरी मिट्टी से।
उसी मिट्टी की खुशबू से महकता है ये वतन मेरा,
इसी देस में हिन्दू,मुस्लिम सभी धर्मों का है बसेरा।
जहां सदियां बीत गई सारी तेरे अपनों की,
मगर याद न आई उन्हें कभी किसी परदेस की ।
अलग-अलग है बोलियां भिन्न-भिन्न वेशभूषाएं,
एकता की गूंज से जहां गूंज उठती है सभी दिशाएं।
इस मिट्टी से जुड़ी है हमारी अलगता की पहचान,
उसी मिट्टी ने बढ़ाया है तुम्हारा मान और सम्मान।
जहां सदियां बीत गई सारी तेरे अपनों की,
मगर याद न आई उन्हें कभी किसी परदेस की।
हिमालय शान हमारी विविधता अभिमान हमारा,
कश्मीर से कन्याकुमारी तक गूंजें एकता का नारा।
ऐसे देस के वासी हम,ऊंची हमारी उड़ान,
इस मिट्टी के खुशबू से ही महकता है ये प्यारा चमन।
जहां सदियां बीत गई सारी तेरे अपनों की,
मगर याद न आई उन्हें कभी किसी परदेस की ।
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