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उत्तर प्रदेश में पुश्त दर पुश्त का दल बदल ! part 1 of 2 l ऑनलाइन बुलेटिन

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली 

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।


 

 

यूपी के चुनावोत्तर परिदृश्य (दस मार्च) बनने में एक धुंधला चित्र ऐसा ही रेखांकित हो रहा है। करीब 55 वर्षों बाद दोबारा जाटराज लखनऊ के क्षितिज पर उभरते दिख रहा है। फर्क यही कि तब दादाजी चरण सिंह थे तो इस दफा जयंत सिंह हैं। सियासी ज्यामिति कुछ यूं बन रही है।

 

प्राणपण से श्रम करके भी यादव—जाट वाली जोड़ी जादुई संख्या 202 विधानसभा भी न पा पाये तो ? यदुवंशियों को अवरुद्ध करने हेतु योगी—मोदी अपने भाजपायी विधायकों की मदद से दस—बारह सीटें कब्जियाने वाले चौधरी जयंत सिंह को समर्थन देकर मुख्यमंत्री नामित कर दें? ऐसा कई बार हुआ है। प्रमाण पर गौर कर लें। सदियों पूर्व सप्तसिंधु क्षेत्र में आर्यों की उपशाखा जाटवंश के शासकों का वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो राजनीतिक पहेलियां स्वत: हल हो जायेंगी। सत्ता छीनना, खोना ओर पलटना इन जाटों के स्वभाव में रहा हे। चाहे राजा सूरजमल (भरतपुर) अथवा सर छोटू राम (रोहतक) से लेकर आज के हल और तलवार में सिद्धहस्त, शिवजटा से आविर्भूत वीरभद्र की परिपाटी के लोग हों। एक खोज के अनुसार यह जाटजन हैहय क्षत्रिय स्त्रियों तथा विप्रवर्ण से जन्मे यह उपवर्ण वाले हों।

 

फिलहाल गत सदी के तीन जाट शासकों का डीएनए जांचे तो वर्तमान संदर्भ अधिक स्पष्ट हो जाता हैं। जाने माने यूपी के दस्तावेजों में प्रथम प्रकरण मिलता है: 3 अप्रैल 1967 से 25 फरवरी 1968 का। तब चौथी विधानसभा में चौधरी चरण सिंह ने अपनी कांग्रेस पार्टी से दशकों पुराना संबंध विच्छेद कर नवनिर्वाचित विधानसभा के सदन में घोषणा कर दी थी कि : ”मैं अपने 15 साथियों के साथ कांग्रेस छोड़कर संयुक्त विधान दल का गठन कर रहा हूं।” चरण सिंह द्वारा अचानक की गयी घोषणा के चन्द दिनों पूर्व ही पड़ोसी हरियाणा से खबर आयी थी कि राव वीरेन्द्र सिंह ने दल बदल कर कांग्रेसी पंडित भगवत दयाल शर्मा की सरकार पलट दी। चरण सिंह को अपने सपने साकार होते दिखे। हालांकि चरण सिंह ने तारीख चुनी थी : एक अप्रैल 1967 (विश्वमूर्ख दिवस)। तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त ने लिखा था : ”सत्ता की राजनीति व्यक्तिगत महत्वाकांक्षियों का ही पर्याय होता है।”

 

मगर यह पार्टी—द्रोही विधायकों की सरकार मात्र ग्यारह माह (25 फरवरी 1968 तक) ही चल पायी थी। राज्यपाल को लिखे अपने त्यागपत्र में चरण सिंह ने लिखा था कि : ”मैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देता हूं। मुझे विश्वास है कि मेरे इस्तीफा देने के कारणों से आप मोटे तौर से अवगत हैं। इस पत्र में इन कारणों में से किसी पर प्रकाश डालना मैं आवश्यक नहीं समझता। यह स्पष्ट है कि आपको दूसरा मुख्यमंत्री तथा मंत्रिमंडल नियुक्त करना पड़ेगा। चूंकि विधानसभा में संयुक्त विधायक दल का बहुमत है, आप शायद उसके नये नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना पसंद करें। अगर आप ऐसा करना उचित नहीं समझते या संविद अपना नया नेता चुनने विफल रहती है, तब में आपको सलाह दूंगा कि कांग्रेस पार्टी विधानसभा में बहुमत खो देने के कारण सत्ताच्युत हो चुकी है, अतएव आप भारतीय संविधान की धारा 174 (2) (बी.) में उल्लिखित अपनी शक्तियों का प्रयोग करें अर्थात् विधानसभा को भंग कर दें और मध्याविध चुनाव कराकर ज्ञात करें कि जनता स्थायी सरकार चलाने के लिए किसी राजनीतिक पार्टी अथवा पार्टियों को पसंद करती है।” अर्थात चरण सिंह गयाराम की फेहरिस्त के दमकते सितारें बन गये। जयंत की सगी बुआ (चरण सिंह की पुत्री) सरोज सिंह मेरे साथ लखनऊ विश्वविद्यालय में बीए (इंग्लिश ट्यूटोरियल) में पढ़ती थी। त्रासदी हो गयी राजभवन कालोनी में आत्महत्या कर ली।

 

अब आये उनके सुपुत्र अजित सिंह पर। उनका उदाहरण याद करना पड़ेगा कि अजित सिंह ने कितनी बार दल बदले? किस—किस घाट का जल ग्रहण किया? कौन से मंत्री पद लिये? इत्यादि। मगर उनके यूपी का मुख्यमंत्री बनने के उत्कट प्रयास की निजी जानकारी मुझे है। यहां एक उल्लेख और। चरण सिंह ने ऐसी ही कला दोबारा दर्शायी और प्रधानमंत्री बन गये थे। अपनी जघन्य शत्रु इन्दिरा गांधी की अनुकम्पा से 28 जुलाई 1979 को। तानाशाही को हरा चुके थे। फिर यारी कर ली थी। जनता पार्टी (मोरारजी देसाई) सरकार को अपदस्थ का चौधरी चरण सिंह चौथे प्रधानमंत्री बन गये। मात्र साढ़े पांच माह हेतु। संसद का सामना तक नहीं कर पाये थे। ”बिन फेरे हम तेरे रहे।” यह सत्ता पलटने और हथियाने का दूसरा प्रयास था चरण सिंह का।

 

 

 


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