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freedom from slave mentality : फैशन की लहर में बह गई नेवी ड्रेस! पसंदीदा बन गई…

freedom from slave mentality:

 

Freedom from slave mentality : एक ऐतिहासिक निर्णय में, भारतीय नौसेना ने अधिकारियों को टाई कोट आदि की ब्रिटिश पोशाक छोड़कर और पायजामा कुर्ता पहनकर अपने भोजनालय में प्रवेश करने की अनुमति देने के नियम को स्वीकार कर लिया है। लेकिन सेना के इस भारतीयकरण में 75 साल लग गये। प्रधानमंत्री का आह्वान “गुलाम मानसिकता से मुक्ति” के लिए था। कुर्ते के ऊपर आप स्लीवलेस जैकेट भी पहन सकेंगे।

 

याद आयी कोलकाता में गोरे साहबों के प्रिय ग्रेट ईस्टर्न होटल की वह घटना। बात आजादी के कुछ सालों बाद की है। स्वाधीनता सेनानी और कांग्रेस नेता पूर्वांचल के अलगू राय शास्त्री को इसी होटल में टांगे और बाहें पकड़ कर, झुला कर होटल से बाहर फुटपाथ पर फेंक दिया गया था। कारण यही कि शास्त्रीजी धोती कुर्ता पहनकर इस ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आखिरी निशानी में गए थे। इस होटल में सूट और टाई अनिवार्य पोशाक थी। (freedom from slave mentality)

 

शास्त्री ने दिल्ली पहुँचकर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को लिखा कि “इसी दिन के लिए क्या हम सब अंग्रेजों से लड़े थे।” खैर नेहरू ने टालने का प्रयास किया। पर मीडिया में बात खूब उछली। इसी परिवेश में नौसेना का वेश भूषा वाला नया नियम स्वागतयोग्य है।

 

यूं राष्ट्रीय पोशाक हर स्वाधीन देश की होती। हर देश की राष्ट्रीयता का ही हिस्सा होती है। हाथ से बनी खादी का पैजामा कुर्ता भारत की जंगे-आजादी की कभी वर्दी हुआ करती थी। मगर अपने गत वर्ष के रायपुर अधिवेशन में सोनिया-कांग्रेस ने सदस्यों द्वारा खादी पहनने की अनिवार्यता समाप्त कर दी। बल्कि शराब पीने की पाबंदी हर कांग्रेसी के लिए खत्म कर दी। अर्थात गांधीवाद से तलाक पूरा हो गया। समाजवादी लोग अभी भी लाल टोपी में दिखते हैं। हालांकि डॉ. राममनोहर लोहिया ने कभी भी लाल टोपी नहीं पहनी। सफेद गांधी टोपी ही धारण करते थे। जयप्रकाश नारायण भी।(freedom from slave mentality)

 

यूं हर देश में फैशन डिजाइनिंग, खासकर वस्त्रों के बारे में, काफी विविधता लिए विकसित हुआ है। यह कपड़ों पर डिज़ाइन और सौंदर्य को साकार करने की कला है। सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवहार से फैशन प्रभावित होते हैं। कपड़े और उपसाधन डिज़ाइन करने में विभिन्न तरीकों से काम करते हैं। कुछ डिज़ाइनर अकेले या कुछ समूह में काम करते हैं। वे फैशन डिज़ाइनर बनाये हुए कपड़े सिर्फ उपयोगिता की दृष्टी से ही नहीं बल्कि दिखने में भी अच्छे लगें। उन्हें इस बात का ध्यान रखना पड़ता है। वह कपड़ा कौन पहनेगा और उसे किन मौकों पर पहना जायेगा ? (freedom from slave mentality)

 

विविध पहनावे, विशेषकर सेना के लिए, परिधान की स्पष्ट रूपरेखा का इतिहास रहा। यह फैशन डिज़ाइन 19 वीं शताब्दी में चार्ल्स फ्रेडरिक वर्थ से शुरू हुआ था। अपने बनाये कपड़ों पर अपने नाम का लेबल लगाने वाला वह पहला डिज़ाइनर था। ड्रेपर, चार्ल्स फ्रेडरिक वर्थ द्वारा पेरिस में अपना मैसन कोचर (फैशन हाउस) स्थापित करने से पहले, कपड़ों का डिज़ाइन एवं निर्माण ज्यादातर अनाम दर्जियों द्वारा किया जाता था। फैशन की अवधारणा शाही दरबार के वस्त्रों से आती थी।

 

पोशाकों की फैशन का आजाद भारत में विकास खूब हुआ है। कभी नेहरू जैकेट और अचकन होती थी। फिर मोरारजी देसाई की तीखी नोकवाली सफेद टोपी आई। धोती भी मराठी और हिंदी प्रदेश की दिखती है। हालांकि राष्ट्रीय पोशाक कई आकर के होते हैं।(freedom from slave mentality)

 

यह आम बात है कि पहनावे से उस व्यक्ति की राष्ट्रीयता का भान हो जाता है। भारत में तो प्रदेश का अंदाज भी लग जाता है। मगर यह परिचर्चा मात्र पुरुषों के पहनावे से है। महिलाओं की विविधता और आकर्षक को सीमाबद्ध नहीं किया जा सका है। इसीलिए भारतीय नौसेना का पजामा-कुर्ता वाला अब नये डिजाइन को खूब प्रोत्साहित करेगा।(freedom from slave mentality)

 

Editorial
के. विक्रम राव

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

 

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