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दीया, बाती औऱ तेल | ऑनलाइन बुलेटिन

©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़, मुंबई


 

 

दीया को जलते देखा है।

हाँ, जलते देखा है तो क्या देखा है।

 

सुनो न,

दीया भी है और बाती भी है,

जिस्म भी है और छाती भी है।

रूह का कोई आग़ाज़ नहीं,

धड़कन की कोई आवाज़ नहीं।

 

देखो न,

बिन तेल इसकी कैसी काया।

न है धूप और न छाया।

धीरे-धीरे बाती को धड़कन देना,

दीया और बाती के मिलन पे चुप रहना।

 

बोलो न,

ये त्याग नहीं तो क्या है,

बिन तेल के औक़ात क्या है।

जब ये तेल मुकर जाएगा।

अंधेरा ही अंधेरा नज़र आएगा।

अंधेरा ही अंधेरा नज़र आएगा।

 


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