मुफलिसी | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन
©भरत मल्होत्रा
शायद अभी भी मुझको कोई तुमसे आस है
इसके लिए तो दिल मेरा इतना उदास है
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संग गिरे तुझ पे और ज़ख्म हो मुझे
तू अब भी इस कदर मेरे दिल के पास है
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तेरे बगैर तख्त ओ ताज भी नहीं कबूल
तू साथ है मेरे तो मुफलिसी भी रास है
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साकी हटा ले जाम मेरे सामने से तू
मय से ना बुझेगी ये आँखों की प्यास है
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ज़ख्म हो रुसवाई का या चाहे कर्ब-ए-ज़ात
अपने लिए हर चोट मुहब्बत की खास है
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मेरी बरहनगी का उड़ाते हो क्यों मज़ाक,
हर शख्स तेरी बज़्म में तो बेलिबास है
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मंजिल खुद आ गई है पता पूछते हुए
तू लग रहा है जैसे मेरे आस पास है
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