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कभी-कभी लगता है | ऑनलाइन बुलेटिन

©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़, मुंबई 


 

 

तन्हाई को गले लगाऊं, कभी-कभी लगता है।

भीड़ में गुम हो जाऊं, कभी-कभी लगता है।

 

ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हे लगाकर, दुनिया को जगा दूं।

 ग़म की चादर तले सुला दूं, कभी-कभी लगता है।

 

किसी के काँधे सर रखकर, दिल की दास्ताँ सुनाऊं।

दिल के सारे राज़ दफ़न कर जाऊं, कभी-कभी लगता है।

 

लहू से स्याही के रंग को लहूलुहान कर जाऊं,

लहू को स्याही की दो बूंद पिलाऊं, कभी-कभी लगता है।

 

झूठ को कहीं दफ़न कर दूं इस ख़ाक में,

सच्चाई को मिलने न दूं राख में, कभी-कभी लगता है।

 

ग़रीबों की आवाज़ को फ़लक की दीवार से टकराउं,

अमीरों का गुरुर मिट्टी में मिलाऊं, कभी-कभी लगता है।

 

सारे ख़्वाब जो देखे हैं, हक़ीक़त से रु-ब-रु कराऊं,

हक़ीक़त भूल ख़्वाबों में खो जाऊं, कभी-कभी लगता है।

हक़ीक़त भूल ख़्वाबों में खो जाऊं, कभी-कभी लगता है।


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