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फिर कैसी आरज़ू | ऑनलाइन बुलेटिन

©गायकवाड विलास

परिचय- लातूर, महाराष्ट्र


 

न शिकवा न शिकायत तुम से,

जो जिंदगी ही खफा हुईं थीं हम से।

फिर कैसी आरज़ू रखें हम और किसी से,

शायद ग़म ही लिखें थे हमारे इन तकदीर की रेखाओं में।

 

जब भी मिली कुछ थोड़ी सी खुशियां हमें,

उन्हें भी बुराईयों की नजर लगती गई।

चलते रहें हम इस जिंदगी के राहों पर मगर,

बहारों की आरज़ू हमारी आरज़ू ही रह गई।

 

मिल गया कोई हमें भी,कुछ पल का साथी बनकर,

मगर हमसफ़र कोई हमें आज तक मिला ही नहीं।

जो भी मिला हमें बेवफा ही मिला जीवन में,

इसीलिए अश्कों में डुबी ये जिंदगी कभी खुलकर हंस ना पाई।

 

जल गए अरमान सभी हो गई विरान जिंदगी,

और बदले हुए युग में किसीको भी पसंद ना आयी हमारी सादगी।

साये के साथ बांटकर हरपल ग़म अपने,

उसी गमों के साथ ही कर ली दोस्ती हमने।

 

न शिकवा न शिकायत हमें कोई किसी से,

जो जिंदगी ही खफा हुईं थीं हम से।

फिर कैसी आरज़ू रखें हम यहां और किसी से,

बेवफ़ाई के जमाने में भी वफ़ा ही करते गए हम जमाने से – – –

 

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