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माँ | Newsforum

©संजय वासनिक, चेंबुर, मुबंई


 

जब सारा गाँव

नींद की आग़ोश में

खो जाता  था

तब  उन सर्दी की

भयानक सर्द रातों में

घर के आहाते में

टिमटिमाते लालटेन की

मध्धीम सी लाइट  में

परीक्षा के तैयारी  की

कश्मकश में

कंपकंपाती सर्द रातों में

शित हवा की झोंकों से

जैसे तैसे बचाव करते हुये …

मध्धीम सी लाईट  में

वो पढृाई करता था ..

 

सोने के लिये कमरे भी

मयस्सर नहीं  थे उसे

घर के आहाते ही उसके

पढृाई का कमरे बन जाते थे…

उसकी माँ  बग़ल में उसके

खर्राटे भरती उनिंदी पड़ी रहती

सारा दिन खेत में मेहनत कर

जब वो आती थी  तब दो निवाले

खाते थे मिलकर और रात मे

जब थक कर  सो जाती थी

चुर होकर तब भी वह शायद

जागती रहती थी, बेटे की पढृाई

और उसके भविष्य की  चिंता

उसकी दिन भर की  मेहनत के

थकान  से ज़्यादा सताती थी ….

पढते पढते कुछ

अंजानी आशंकाओं  से

वो सिहर उठता

और बेवजह ही माँ को

आवाज़ देता था…

माँ सो गयी हो क्या …

उसे पता था माँ

गहरी नींद सो रही है

फिर भी माँ कहती…;

ना बेटा मैं सोयी ना

अचरज और असंमजस

फिर वह सोचता

कैसे माँ फट से उत्तर देती है

थकान से चूर होकर भी

गहरी नींद में सोकर भी

कैसे समझती है

बेटे की पुकार कहती थी

अंधेरे से ना डर

तु अपनी पढृाई कर

यह बात सुनकर

होकर बेफ़िकर

मध्धीम सी लाइट  में

वो पढृाई करता था ..

 

फिर वो मन ही मन  ही

कहता ना माँ ना डरु मैं

किसी अंधेरे से

ना किसी बात से

नींद में ही वो बड़बड़ाती

ना डर तू अंधेरे से

ना डर तू भुक से

गर पढ़ेगा होकर निडर

तो भविष्य तेरा

होगा उज्जवल ….

और मध्धीम  सी लाइट  में

फिर वो पढ़ाई करने लग जाता था …

 


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