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काग़ज़ | ऑनलाइन बुलेटिन

©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़, मुंबई

परिचय– बिहार शरीफ़, नालंदा में जन्म, में निवास, शिक्षा- एमसीए, एमबीए, आईटी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर.


 

 

दरख्तों से बन कर नया रूप लेती है।

काग़ज़ है नाव बन समंदर में तैर लेती है।

 

बेजान परिंदा बन कर, आसमान में उड़ जाता है,

फूल बनकर बड़े प्यार से घरों को भी सजाता है।

 

लिखकर काग़ज़ पे शाएरी, ढेला बाँध फेंक आया,

चोट लगी पत्थर से, काग़ज़ अपना पैग़ाम दे आया।

 

हर ख़ुशी व ग़म की स्याही काग़ज़ पे उतार लिया,

हर पन्ने पे पैग़ाम-ए-मुहब्बत-मुहब्बत दर्ज कर लिया।

 

रुपये जो बन गए काग़ज़ के सब कुछ ख़रीद लिया,

काग़ज़ की क़ीमत क्या थी काग़ज़ ने कह दिया।

 

बिन काग़ज़ ज़िन्दगी का वजूद न होता,

स्याही रंग न भरती, काग़ज़ इंद्रधनुष न होता।


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