गरीबी की चक्की | Onlinebulletin.in
©अशोक कुमार यादव ‘शिक्षादूत’, मुंगेली, छत्तीसगढ़
ओ! जिंदगी देने वाले परमेश, मुझे पेट भर रोटी भी दो।
मैं निर्धन का बालक लाचार, तन के लिए धोती भी दो।।
पिता हैं मेरे बड़े शराबी, मां है मेरी काम वाली बाई।
बिलख कर रो रहे हैं घर में, तीन बहन और चार भाई।।
घर की जिम्मेदारियां मुझ पर, करता हूं मैं सारे काम।
देते हैं सब मुझे कई गालियां, रंग-रंग के हैं मेरे नाम।।
निकल पड़ता हूं धंधा करने, मैं शहरों की गलियों में।
स्वयं को संभाल नहीं पाता, गिर जाता हूं नालियों में।।
बिखर जाते हैं सारे सामान, मिला दुर्गंध काला जल।
सूख चुकी है नदी की धारा, बंद पड़ा चुप बैठा नल।।
देख रहा हूं अंबर ओर-छोर, प्रभु देख रहे हो मेरा हाल।
क्यों गरीबी की चक्की में पीसा, पूछ रहा हूं यह सवाल?
शाम को लौट आता हूं घर, लेकर परिवार का खाना।
जेब में फूटी कौड़ी ना बचता, कैसे गाऊं खुशी से गाना?
घने अंधेरी रात में चीख सुना, सिहर उठी नाजुक बदन।
बरस रहे थे बे-लगाम डंडे, माता रो रही थी बैठी सदन।।
वही हाथ,हां!हां!वही हाथ, अचानक दिखाई दिया मुझे।
ना दिया कभी आशीर्वाद, उठा है सदा दुःख,दर्द के लिए।।
जिन हाथों ने छीना बचपन, वंचित रखा मुझे शिक्षा से।
नष्ट कर ली अपनी जिंदगी, अज्ञानता,गुलामी इच्छा से।।