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मजदूर ……..

©अनिता चन्द्राकर

परिचय- दुर्ग, छत्तीसगढ़

 

चिलचिलाती धूप में पत्थर तोड़ता

पसीने बहाता दिन रात।

हर दिन एक समान,

ठंडी गर्मी या हो बरसात।

ऊँची इमारतें महल बनाता,

रात गुजारता फुटपाथ पर।

कट रही जिंदगी मजदूर की।

केवल सूखी रोटी खाकर।

 

किससे कहे पीड़ा अपनी,

नहीं बहाता अश्रुधार।

जिम्मेदारी है कंधे पर परिवार की,

झेलता है वक़्त की मार।

 

जाने कैसी किस्मत है उसकी,

नहीं उसके हिस्से में आराम।

औरों को देने सुख सुविधा,

जीवन भर करता काम।

 

दुख की गठरी ढोये चलता,

क्या मिलेगा आँसू बहाकर।

हम लूटते है वाहवाही,

मजदूर दिवस मनाकर।

धरती मां की कोरा dharatee maan kee kora
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