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तो हम क्यों नहीं कदम बढाते हैं | ऑनलाइन बुलेटिन

©राजेश दयोरा

परिचय– कैथल, हरियाणा


 

 

 

बात गर जब हक़ की हो,

             हम क्यों नहीं कदम बढ़ाते हैं?

न्याय पाने में जाने अक्सर,

             हम क्यों यूँ घबरा जाते हैं?

बात अपने हक़ की कहने से,

              हम जाने क्यों यूं डर जाते हैं?

खुद के शोषण होने पर,

             हम क्यों अक्सर चुप हो जाते हैं?

वक़्त पड़ा है बहुत अभी भी,

             हम पहले ही क्यों मुरझाते हैं?

रचियता सृष्टि के हैं हम ही,

             हम ही क्यों बेघर हो जाते हों?

इतिहास गवाह है, ये देश हमारा,

            घर में ही क्यों अछूत कहलाते हैं?

जात-पात व धर्म के नाम पे,

            हमें क्यों वो उलझा पाते हैं?

हैं वो लोग पराये, देश पराया,

            फिर क्यों वो स्वर्ण कहलाते हैं?

सोकर गहरी नींद में हर बार,

            हम क्यों यूँ ही लुट जाते हैं?

गिनती के हैं वो तो क्यों ना,

              हम उनको मार लात भगाते हैं?

याद कर सोचो उन वीर शहीदों को,           

           क्यों ज़िन्दगी हमारे लिए खो जाते है?

कबीर, रैदास, फुले, सावित्री, फातिमा

               और क्यों भीम ना बन पाते हैं? 

उठ संघर्ष कर हक़ लेने को,

                क्यों हम सब नहीं प्रण उठाते हैं?

वो यूं ही स्वर्ण बने हैं तो क्या,

                हम भी हीरे क्यों नहीं बन जाते हैं?

एक होकर हम मिल सब,

                क्यों नहीं बहुजन बन जाते हैं?

हक़ मांगने से नहीं मिलते जब,

               हम हक़ छीनना क्यों नहीं जानते है?

हैं औलाद सावित्री मां की हम,

               क्यों नहीं उलट हालात में लड़ पाते है?

हैं रैदास, कबीर, फुले, अम्बेडकर नींव हमारी,

               हम क्यों नहीं अपनों को बता पाते हैं?

उठे हाथ हैं हवा में बहुत से अब,

             इंक़लाब संग जय भीम के नारों से,

है भीम, भगत जब एक सोच के,

                   तो हम क्यों नहीं कदम बढाते हैं?


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