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तृष्णा | ऑनलाइन बुलेटिन

©हिमांशु पाठक, पहाड़

परिचय– नैनीताल, उत्तराखंड.


 

 

आदमी की तृष्णा का,

अंत कहाँ है साहब!

बस दौड़ता चला जाता,

विकास के पथ पर।

आदमी यूँ तो बुद्धिमान,

पर बुद्धि का उपयोग,

सही दिशा में करता नहीं,

और अपनी इच्छाओं,

की पूर्ति हेतु, दूसरों के,

अधिकारों पर कब्जा,

कर, अपना हित साधता।

वह, विकास की चाह,

लिए हुए, धृतराष्ट्र बन,

आँखों में स्वार्थ की,

काली पट्टी बांधकर,

अंधता का आवरण,

ओड़, प्रकृति का,

दोहन करता चला जाता।

वृक्षों को काटता,

जल वायु व स्थल को,

प्रदुषित करता चलता,

अपनी सुविधा के लिए,

वो दूसरे अन्यों को,

असुविधा पहुंचाता,

आदमी की ये तृष्णा,

थमती नहीं बल्कि,

सुरसा के मुंह की तरह,

बढ़ती ही चली जाती,

और परिणति स्वरूप,

उसके लिए ही परेशानी,

खड़ी करती चली जाती

और आदमी बजाय इसके,

कि वह प्रायश्चित करे,

अपराध पर अपराध,

करता चला जाता है,

और फिर चिल्लाता।

हाय गर्मी! हाय गर्मी!


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