कोई तो पढ़ेगा…
©गायकवाड विलास
परिचय- मिलिंद महाविद्यालय लातूर, महाराष्ट्र
तारीफ़ सुनने की आशाएं मैंने यहां कब की छोड़ी है,
ये ज़माना तो अच्छे दामन में भी दाग़ छोड़ जाता है।
चलें गए वो दिन,अब ये नया दौर आया है,
बस नीतियां छोड़के,सबकुछ संग वो लाया है।
कोई तो पढ़ेगा ये नज़्म मेरी इस ज़माने में,
ये सारा ज़माना तो एक ही राह पे कब चलता है।
पतझड़ के बाद भी,पेड़ों पे वही नई बहार आती है,
सिर्फ इन्सान छोड़के,कुदरत आज भी वही रंग लाती है।
वही आसमां है,वही जमीं है,वही ये कुदरत है,
पल-पल बदल जाए ऐसी,सिर्फ इस ज़माने की फितरत है।
कल के फटे हुए कपड़ों में,इस ज़माने ने ग़रीबी की बदबू देखी है,
आज उसी फटे हुए कपड़ों में,देखो अमीरों की शोहरत छिपी है।
मेरे लफ़्ज़ों से इन्सानियत जिंदा रहे,बस इतनी-सी आशाएं है,
रोशनी में जी रहे है सभी मगर अंधेरे से सहमी सी ये दिशाएं है।
तारीफ़ सुनने की आशाएं मैंने यहां कब की छोड़ी है,
ये ज़माना तो अहंकार की गर्दिशों में बहोत आगे निकल गया है।
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