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फिर यहीं आएंगे वे | Newsforum

©प्रीति बौद्ध, फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

परिचय- एमए, बीएड, समाज सेविका, प्रकाशन- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचना प्रकाशित, सम्मान- C .F. M . Writers Asociation Asqnol Best Bangal.


? कहानी समीक्षा ?

 

हिंदी साहित्य जगत की जानी-मानी कलम को तलवार की धार सी बेखौफ चलाने वाली स्वतंत्र लेखिका राजकुमारी की कहानी ”समकालीन भारतीय साहित्य” मार्च-अप्रैल के अंक 214 में प्रकाशित कहानी पढ़ी। आप की कहानी विद्वानों एवं विदुषियों और पाठकों के बीच अप्रत्याशित चर्चित हो रही है। वर्तमान परिपेक्ष्य में यथार्थवाद को उजागर करती कथा। मैं अपनी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया देने की कोशिश कर रही हूं।

प्रकाशित पुस्तक- “फिर यहीं आएंगे वे”

“फिर यहीं आएंगे वे” शीर्षक कहानी एक ऐसे समाज की कथा है जो समाज में निम्न वर्ग कहलाता है। कहानी ऐसे लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है जो दोहरा चरित्र जीने के आदी हैं। इस कहानी में नायिका प्रेरणा जो किताबें की दुनिया में खोई रहतीं हैं, वह समाज के अपने महापुरुषों की किताबों को पढ़ती और अपनी शिक्षा को सर्वोपरि मानतीं हैं। नायिका ”जाति का समूल विनाश” नामक पुस्तक अपने कमरे में बैठ कर पढ़ ही रही थी कि एकाएक उसकी मां के हाथों की थपथपाहट के शोरगुल से तंग आकर उसे दरवाजा खोलना पड़ा और मां के बर्ताव से नायिका खुद को अपराधी महसूस कर रही थी।

 

मां बेटी में जो संवाद हुआ उसमें ऐसा लगता है कि एक लड़की जब अपने ही घर में उसको बार-बार लड़की होने का एहसास कराया जाता है तो वह खुद को अनकंफर्टेबल महसूस करती है। लड़की अपने ही घर में तो रही होती हैं लेकिन, एक जिंदा लाश जैसी। समाज और मां बाप के सम्मान की जिम्मेदारी केवल और केवल लड़कियों के ऊपर ही होती है। लड़कों के हिस्से में तो आती है सिर्फ मां- बाप की चल -अचल संपत्ति हां, लड़कियों को संविधान ने पिता की संपत्ति में अधिकार दिया लेकिन, इसका पालन कोई नहीं कर रहा है। ऐसा लगता है जैसे लड़कियां जीतीं हैं लेकिन, उनको सांसे भी शायद नापतोल कर दी जाती हैं।

 

इस कहानी में चमार जाति की एक लड़की अपने ही शूद्र समाज के एक भंगी जाति के लड़के के साथ जब गंधर्व विवाह कर लेती है तो समाज की और भी जो लड़कियां होती हैं उन पर इस कदर पाबंदी लगाई जाती है जैसे कि यह भी लड़कियां उसी ओर कदम बढ़ा रही हैं। जैसे कोई महामारी समाज में कदम बढ़ाती है और हम सब उसे रोकने का भरसक प्रयास करते हैं। समाज में लड़कियों पर पाबंदी ऐसी लगाई जाती है जैसे लड़कियां समाज के सम्मान की इकलौती संरक्षक हैं। नायिका के कमरे में जब उसके पापा और भाई आते हैं तो उनका यही हुक्म होता है कि महिलाओं की आवाज घर के बाहर जाए तो घर की बर्बादी हो जाती है। मतलब महिलाओं की आवाज घर के बाहर भी नहीं जानी चाहिए। महिलाओं को घर में कैद रहना चाहिए। पुरुष कुछ भी करें कोई मतलब नहीं है, वह दहाड़े चिल्लाए, नाचे-गाए घर के बाहर समाज में हुड़दंग करें; कोई परेशानी नहीं है।

 

नायिका का भाई अभी अपनी बहन को ऐसे घूर रहा था जैसे उसकी बहन की पढ़ाई करने की लालसा न होकर कोई बड़ा क्राइम करने की इच्छा हो। अक्सर ऐसा होता है कि लड़कों को हर तरह की स्वतंत्रता देते हैं और लड़कियों को घर में कैद करके रखते हैं। जिस तरह से नायिका की मां उसकी बांह पकड़ लगभग घसीटने की तरह ले जाना बेटियों के प्रति उनका बेटियों को इंसानों का दर्जा भी देना शायद संभव नहीं है वह भी अपने मां-बाप का इतना कठोर हृदय। ऐसी हालत में कैसे बेटियों का मानसिक स्तर बढ़ेगा समझ से बाहर है। जिस समाज की बात हम लोग बार-बार करते हैं। सच में तो वह समाज कभी किसी को नहीं पूछता कि किसके घर खाना बना है, कौन भूखा सो रहा है। समाज की दोहरी चरित्र शैली का चित्रण भी कथा में बखूबी हुआ है।

 

पंचायत जब ”भीमराव अम्बेडकर भवन” (जो कि हमारे संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम पर बना है) उसमें होती है और वहां जो भी आता है जय भीम, जय फुले, जय वाल्मीकि आदि से एक-दूसरे का अभिवादन करता है और जितने भी यह अभिवादन कर रहे हैं यह सब सामाजिक कार्यकर्ता, समाज के उत्थानकर्ता स्वयं को समझ बैठे हैं। हमारे भाग्य-विधाता जातीय विभाजन के एकदम खिलाफ थे। सोचने वाली बात यह है कि यहां जितने भी लोग आ रहे थे इन महान शख्सियतों को मान रहे थे लेकिन, उनके विचारों को इन लोगों ने पूरी तरह से नकार दिया था।

 

सतीश राठी जो लड़की का पिता है वह, क्लर्क की पोस्ट पर है और पढ़ा-लिखा सभ्य समाज से आता है। पढ़े-लिखे लोगों को जातिवाद का विरोध करना चाहिए। यह जनाब जाति को अपने सर पर ढो रहे हैं। उनकी बेटी जिसने गंधर्व विवाह कर लिया उसको पानी पी-पी कर कोस रहे हैं। खुद को अपराधी समझने की बजाए अगर बच्चों से मिलते, उनकी भावनाओं को समझते तो काफी संतुष्टि रहती। किंतु हमारे समाज का यही कटु सत्य है जो लेखिका ने साफ तौर पर लिखा है।

कहानी में लड़की की मां के पास बैठी चमारों की औरतों का तंज कसना उनकी तुच्छ और मलिन बुद्धि को दर्शाता है। लड़के का पिता जो शूद्र समाज में ही भंगी जाति से आता है जिनका नाम है राजकुमार, ”दलित एकता मंच” का सक्रिय सदस्य है और इनके बेटे ने एक शूद्र कन्या से विवाह कर दलित एकता का संदेश देना चाहा, जो हजम नहीं हो रहा है। दलित एकता मंच के सदस्य हैं केवल दिखावे के लिए। असल में तो दूर-दूर तक कहीं एकता नहीं रखना चाहते।

 

अगर शूद्र समाज से एकता रखना चाहता तो आज ”भीमराव अंबेडकर भवन” में पंचायत न हो रही होती। रही बात समाज की तो यह समाज परेशानी में नहीं बैठता, नहीं पूछता सिर्फ और सिर्फ खिल्ली उड़ाना जानता है। इस समाज को सिर्फ मौका मिलना चाहिए कब किसकी हंसी उड़ानी है। बाबा साहब को मानने वाले लोगों जैसे कि कहानी में कुछ नेता आए हैं जो बाबा साहब को मानते हैं उन्होंने भी कड़े शब्दों में कहा है कि अगर तुम दोनों परिवारों ने बच्चों को संरक्षण दिया तो समाज से हुक्का पानी बंद कर दिया जाएगा।

 

नेता बाबा साहब को मानते हैं, तो फिर उनके विचारों को फॉलो क्यों नहीं कर रहे हैं? उनके विचारों को भी मानिए। उन्होंने कहा था शिक्षित बनिए, संगठित रहिए और संघर्ष करिए, क्या शूद्र जाति के दो बच्चों का विवाह बंधन इतना घृणित हो गया कि वह बाबा साहब के बताए विचारों को भी भूल गए ? और एक ऐसा निर्णय दे देते हैं कि जो अमानवीयता को दर्शाता है।

 

कहानी की नायिका के माता-पिता ने जब उसके कमरे में उठा-पटक और नायिका के साथ कठोरता बरती तो नायिका का जवाब लेखिका की स्वच्छन्दता और बेबाक भाषा शैली को दर्शाती है। वह सर आंखों पर रखने वाली बात है। नायिका ने कहा कि ”करे कोई भरे कोई।” बिल्कुल सही बात है। ऐसा मेरे जीवन में भी एक वाक्य घटा था उस समय मैं 8वीं कक्षा में पढ़ती थी कि मेरे किसी रिश्तेदार की बेटी ने अपने ही रिश्तेदारी में पढ़ते हुए उन्हीं के बेटे से शादी कर ली समाज और उनके पिता को तब पता लगा जब वह मां बन गई। उनके पिता इसी कारण बीमार पड़ गए। अंततः वह निर्वाण को प्राप्त हो गए।

 

मैं यह बात आप सबको इसलिए बता रही हूं कि इसका असर मेरे घर पर भी पड़ा। मैं तीन भाइयों की सबसे छोटी इकलौती बहन हूं। यह तो सही बात है कि लड़कों की बजाए लड़कियों पर सीसीटीवी कैमरे की तरह नजर रखी जाती है लेकिन, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता ऐसे कैमरों से। मुझे शौक था पढ़ने का लेकिन, जब यह घटना रिश्तेदारी में घटित हुई तो मेरी पढ़ाई पर भी उंगलियां उठने लगी। मैं अपने परिवार में लड़कियों में पढ़ने वाली पहली लड़की हूं। और मैं बिल्कुल नहीं चाहती थी कि मैं पढ़ाई बंद करूं मेरे घर जो भी आता यही कहता कि लड़कियों का पढ़ाना सही नहीं रहता है। लड़कियां मनमानी करती हैं, उस समय में बहुत समझदार नहीं थी लेकिन, हां इतना पता था कि यह लोग उस घटना को लेकर मेरा मापन कर रहे हैं मैंने अपने पिताजी से कहा कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूं और मुझे ऐसा कुछ नहीं करना जिससे कि किसी का सर नीचा हो।

 

मेरे पिताजी ने जब मेरी यह बात सुनी तो और लोगों की बातें अनसुनी कर दी। मेरी पढ़ाई जारी रखी। कहानी में लेखिका ने नेताओं के दोहरे चरित्र को उजागर किया है जो लोग छोटे-मोटे राजनीतिक या समाज सेवा कार्य से जुड़े हैं ऐसे लोगों के भी दोहरे चरित्र को बेहतरीन तरीके से उजागर किया। जो मंचों पर जिन विचारों को रखते हैं हकीकत में उन्हीं के उलट कार्य समाज और जीवन में करते हैं। ऐसे दोहरे चरित्र वाले इंसानों से तो बेहतर है वह लोग जो भले ही सामाजिक कार्यकर्ता नहीं लेकिन, सोच सकारात्मक रखते हैं।

लेखिका की इस कहानी की नायिका जो लेखिका के विचारों को दर्शाती है समकालीन जागरूक बहुजन महिलाओं की सोच का प्रमाण देती है। सच में कहानी तारीफ के काबिल है।

 

 

लेखिका – डॉ.राजकुमारी,

प्रो• जाकिर हुसैन कॉलेज

नई दिल्ली

प्रकाशित – समकालीन भारतीय साहित्य

अंक -214” मार्च-अप्रैल”


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